
क्यों कहलाए कृष्ण खाटू श्याम
एक विशाल, गहन और पवित्र गाथा, जो सदियों से भारत की भूमि पर गूँज रही है, वह है भगवान श्रीकृष्ण और उनके परम भक्त बर्बरीक की। यह कथा केवल एक पौराणिक आख्यान नहीं, बल्कि भक्ति, त्याग, और धर्म की विजय का एक शाश्वत प्रतीक है। इसी कथा के गर्भ से ‘खाटू श्याम’ नाम का प्रादुर्भाव हुआ, जो आज करोड़ों भक्तों के हृदय में श्रद्धा का सर्वोच्च स्थान रखता है।
महाभारत की पृष्ठभूमि और बर्बरीक का जन्म
यह बात उस समय की है जब धर्म और अधर्म के बीच निर्णायक युद्ध की भूमिका बन रही थी – महाभारत का महायुद्ध। कुरुक्षेत्र की भूमि पर कौरवों और पांडवों की सेनाएँ आमने-सामने खड़ी थीं, और ब्रह्मांड की नियति एक ऐसे मोड़ पर थी जहाँ से धर्म की पुनर्स्थापना होनी थी। इसी कालखंड में, एक ऐसे योद्धा का जन्म हुआ जिसकी वीरता और त्याग ने उसे अमरता प्रदान की।
बर्बरीक, भीमसेन और हिडिम्बा के पराक्रमी पुत्र घटोत्कच के सुपुत्र थे। घटोत्कच स्वयं एक मायावी और शक्तिशाली योद्धा थे, जिन्होंने अपनी माता हिडिम्बा के राक्षसी गुणों और पिता भीम के मानवीय गुणों का अद्भुत मिश्रण पाया था। बर्बरीक अपने पिता से भी अधिक शक्तिशाली और अलौकिक गुणों से संपन्न थे। उनका जन्म ही एक विशेष उद्देश्य के लिए हुआ था, यद्यपि उस समय यह बात किसी को ज्ञात नहीं थी, सिवाय स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के, जो त्रिकालदर्शी थे।
बर्बरीक बचपन से ही अद्वितीय प्रतिभा के धनी थे। वे अपनी माता मोरवी (कुछ कथाओं में कामकटंकटा) के संरक्षण में पले-बढ़े, जो स्वयं एक धर्मपरायण और ज्ञानी स्त्री थीं। उन्होंने बर्बरीक को न केवल युद्ध कला में निपुण बनाया, बल्कि उन्हें धर्म और नैतिकता के गहरे सिद्धांतों का भी ज्ञान दिया। बर्बरीक ने अपनी शिक्षा गुरुजनों से प्राप्त की, जिन्होंने उनकी अद्वितीय प्रतिभा को पहचाना और उन्हें विशेष प्रशिक्षण दिया। उनकी शिक्षा इतनी गहन और प्रभावी थी कि उन्होंने अल्पायु में ही युद्ध कौशल में महारत हासिल कर ली, जिससे बड़े-बड़े योद्धा भी चकित रह गए।
उनकी शक्तियों का एक प्रमुख स्रोत देवताओं का आशीर्वाद था। भगवान शिव, जो सृष्टि के संहारक और कल्याणकर्ता हैं, बर्बरीक की तपस्या और निष्ठा से प्रसन्न हुए। उन्होंने बर्बरीक को तीन अमोघ बाण प्रदान किए। इन बाणों की विशेषता यह थी कि वे एक बार लक्ष्य पर छोड़े जाने पर उसे भेदकर ही वापस आते थे, और एक ही बाण से किसी भी सेना या लक्ष्य का पूर्ण विनाश किया जा सकता था। ये बाण इतने शक्तिशाली थे कि तीनों लोकों को भी क्षण भर में नष्ट करने की क्षमता रखते थे। इसके अतिरिक्त, अग्निदेव ने उन्हें एक ऐसा दिव्य धनुष प्रदान किया था, जो उन्हें युद्ध में अजेय बनाता था। यह धनुष कभी भी शक्तिहीन नहीं होता था और अपने धारक को अद्भुत सामर्थ्य प्रदान करता था।
बर्बरीक ने इन दिव्य अस्त्रों को प्राप्त करने के बाद एक महत्वपूर्ण प्रतिज्ञा ली। उन्होंने अपनी माता मोरवी के समक्ष यह वचन दिया कि वे युद्ध में सदैव उस पक्ष का साथ देंगे जो निर्बल होगा, जो हार रहा होगा। यह प्रतिज्ञा उनकी न्यायप्रियता, करुणा और धर्म के प्रति उनकी गहरी निष्ठा का प्रतीक थी। वे मानते थे कि धर्म का पालन करने वाले को कभी हारने नहीं देना चाहिए, और यदि धर्म का पक्ष कमजोर पड़ रहा हो, तो उसे बल प्रदान करना उनका कर्तव्य है। यह प्रतिज्ञा, जो उनकी महानता का परिचायक थी, बाद में एक ऐसी स्थिति उत्पन्न करने वाली थी जिसने स्वयं भगवान श्रीकृष्ण को हस्तक्षेप करने पर विवश कर दिया, ताकि धर्म की स्थापना का वास्तविक उद्देश्य पूरा हो सके।
कुरुक्षेत्र की ओर यात्रा और दिव्य योजना
जब महाभारत युद्ध की घोषणा हुई और कुरुक्षेत्र की विशाल भूमि पर दोनों ओर की सेनाएँ, कौरवों और पांडवों की, एकत्र होने लगीं, तो बर्बरीक को भी युद्ध में भाग लेने की तीव्र इच्छा हुई। उनके मन में धर्म की स्थापना का दृढ़ संकल्प था, और वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार निर्बल पक्ष का साथ देने को तत्पर थे। उन्होंने अपनी माता मोरवी से युद्ध में जाने की आज्ञा ली, जिन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया और अपने धर्म का पालन करने के लिए प्रेरित किया।
बर्बरीक अपने दिव्य धनुष और उन तीन अमोघ बाणों के साथ कुरुक्षेत्र की ओर चल पड़े। उनकी यात्रा में, उन्होंने देखा कि चारों ओर युद्ध का माहौल था। लाखों सैनिक, रथ, हाथी और घोड़े युद्ध के लिए तैयार थे। कौरवों के पक्ष में भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, दानवीर कर्ण जैसे महान महारथी थे, जिनकी शक्ति और युद्ध कौशल अतुलनीय था। दूसरी ओर, पांडवों के पक्ष में अर्जुन, भीम, युधिष्ठिर, नकुल और सहदेव जैसे वीर थे, जिनके साथ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण सारथी के रूप में उपस्थित थे।
बर्बरीक कुरुक्षेत्र के समीप पहुँचते ही, दोनों सेनाओं का आकलन करने लगे। वे यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि कौन सा पक्ष वास्तव में निर्बल है, ताकि वे अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर सकें। उनके मन में कोई व्यक्तिगत राग-द्वेष नहीं था; वे केवल धर्म के सिद्धांत का पालन करना चाहते थे।
भगवान श्रीकृष्ण, जो ब्रह्मांड के समस्त रहस्यों के ज्ञाता थे और भविष्य को स्पष्ट रूप से देख सकते थे, बर्बरीक की शक्ति और उनकी प्रतिज्ञा से भली-भाँति परिचित थे। वे जानते थे कि यदि बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे, तो वे अकेले ही क्षण भर में दोनों सेनाओं का संहार कर सकते हैं। बर्बरीक की यह शक्ति, यद्यपि धर्म की रक्षा के लिए थी, परंतु यह धर्म की स्थापना के लिए आवश्यक महाभारत युद्ध के दिव्य उद्देश्य को बाधित कर सकती थी।
श्रीकृष्ण जानते थे कि यदि बर्बरीक ने निर्बल पक्ष का साथ दिया, तो वे कौरवों का पक्ष लेंगे, क्योंकि पांडवों के पास स्वयं भगवान श्रीकृष्ण का समर्थन था, जिससे वे शक्तिशाली प्रतीत होते थे। और यदि वे पांडवों का पक्ष लेते, तो कौरव निर्बल हो जाते और वे उनका साथ देते। इस प्रकार, बर्बरीक की प्रतिज्ञा के कारण युद्ध कभी समाप्त नहीं होता, या फिर एक ही क्षण में समाप्त हो जाता, जिससे धर्म की स्थापना का वास्तविक उद्देश्य, यानी अधर्म का पूर्ण विनाश और धर्म का पुनर्स्थापन, पूरा नहीं होता। यह युद्ध केवल योद्धाओं के बीच का संघर्ष नहीं था, बल्कि यह युग परिवर्तन का एक माध्यम था, जिसके लिए एक विशेष प्रकार के बलिदान और परिणाम की आवश्यकता थी।
इसलिए, भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को रोकने का निश्चय किया। यह उनकी लीला का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जिसके माध्यम से वे बर्बरीक को एक महान उद्देश्य के लिए तैयार कर रहे थे और उन्हें अमरता प्रदान करने वाले थे।
ब्राह्मण वेश में श्रीकृष्ण और बर्बरीक की परीक्षा
भगवान श्रीकृष्ण ने एक वृद्ध और साधारण ब्राह्मण का वेश धारण किया। उनके वस्त्र मैले थे, और उनके चेहरे पर एक रहस्यमय मुस्कान थी। वे बर्बरीक के मार्ग में एक ऐसे स्थान पर आ गए जहाँ से बर्बरीक को गुजरना था। बर्बरीक ने दूर से ही ब्राह्मण को देखा और उनके समीप आकर विनम्रतापूर्वक प्रणाम किया।
बर्बरीक ने पूछा, “हे ब्राह्मण देव! आप कौन हैं और इस भयंकर युद्धभूमि की ओर क्यों जा रहे हैं? क्या मैं आपकी कोई सहायता कर सकता हूँ?”
ब्राह्मण रूपी श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को ध्यान से देखा और मुस्कुराते हुए कहा, “हे वीर! मैं एक साधारण ब्राह्मण हूँ और इस युद्धभूमि को देखने आया हूँ। परंतु, तुम्हें देखकर मुझे आश्चर्य हो रहा है। तुम एक युवा योद्धा प्रतीत होते हो, और तुम्हारे पास ये तीन बाण और यह धनुष देखकर लगता है कि तुम कोई साधारण व्यक्ति नहीं हो। तुम कौन हो और इस भयंकर युद्ध में क्यों भाग लेने जा रहे हो?”
बर्बरीक ने अपनी पहचान बताई, “हे ब्राह्मण देव! मैं घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक हूँ। मैं महाभारत युद्ध में भाग लेने जा रहा हूँ। मैंने अपनी माता को वचन दिया है कि मैं उस पक्ष का साथ दूँगा जो युद्ध में हार रहा होगा, जो निर्बल होगा।”
श्रीकृष्ण ने उनकी बात पर विश्वास न करने का ढोंग करते हुए कहा, “तुम्हारे पास तो केवल तीन बाण हैं। भला इन तीन बाणों से तुम इस विशाल युद्ध का क्या कर पाओगे? यह तो मात्र एक खिलौना लगता है। इस युद्ध में लाखों योद्धा हैं, और तुम तीन बाणों से क्या कर लोगे?”
बर्बरीक को ब्राह्मण के इस उपहास पर थोड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि वे अपनी शक्तियों से भली-भाँति परिचित थे। परंतु, उन्होंने धैर्य और विनम्रता से उत्तर दिया, “ब्राह्मण देव! ये तीन बाण साधारण नहीं हैं। इन बाणों में इतनी शक्ति है कि मैं एक ही बाण से पूरी सेना का संहार कर सकता हूँ। मेरा पहला बाण सभी शत्रुओं को चिह्नित करता है, दूसरा बाण उन्हें नष्ट करता है, और तीसरा बाण वापस मेरे तरकश में आ जाता है। यदि मैं चाहूँ तो दूसरे बाण से नष्ट हुई सेना को पुनः जीवित भी कर सकता हूँ, और तीसरे बाण से मैं अपने आप को भी बचा सकता हूँ।”
श्रीकृष्ण ने उनकी बात पर विश्वास न करने का अभिनय करते हुए कहा, “यह तो असंभव लगता है, बालक! इतनी बड़ी बात कह रहे हो। क्या तुम अपनी इस शक्ति का प्रमाण दे सकते हो? केवल बातों से तो विश्वास नहीं होता।”
बर्बरीक ने कहा, “अवश्य, ब्राह्मण देव! आप जो भी प्रमाण माँगें, मैं देने को तैयार हूँ। मेरे बाणों की शक्ति का प्रमाण मैं आपको अभी दे सकता हूँ।”
श्रीकृष्ण ने पास ही खड़े एक विशाल पीपल के वृक्ष की ओर इशारा करते हुए कहा, “देखो, इस पीपल के वृक्ष पर अनगिनत पत्ते हैं। क्या तुम अपने एक ही बाण से इन सभी पत्तों को एक साथ भेद सकते हो? यदि तुम ऐसा कर सको, तो मैं तुम्हारी शक्ति पर विश्वास करूँगा।”
बर्बरीक ने बिना किसी हिचकिचाहट के ब्राह्मण की चुनौती स्वीकार कर ली। उन्होंने अपने धनुष पर एक बाण चढ़ाया और ध्यान केंद्रित किया। उनकी आँखों में आत्मविश्वास और एकाग्रता थी। बाण छोड़ने से पहले, उन्होंने ब्राह्मण से कहा, “ब्राह्मण देव! आप वृक्ष के नीचे खड़े हैं। यदि कोई पत्ता आपके शरीर पर हो, तो कृपया हट जाएँ, क्योंकि मेरा बाण सभी पत्तों को भेदकर ही वापस आएगा। यह बाण अपने लक्ष्य को बिना भेदे वापस नहीं आता।”
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए देखा कि बर्बरीक के बाण छोड़ने से पहले ही, एक पत्ता टूटकर उनके पैरों के नीचे आ गिरा था। श्रीकृष्ण ने उस पत्ते को चतुराई से अपने पैर के नीचे छिपा लिया। बर्बरीक ने बाण छोड़ दिया। वह बाण अत्यंत तीव्र गति से पीपल के वृक्ष के सभी पत्तों को एक-एक करके भेदता गया। बाण की गति इतनी तीव्र थी कि वह एक क्षण में ही हजारों पत्तों को भेद देता था। जब वृक्ष पर कोई पत्ता नहीं बचा, तो वह बाण सीधे श्रीकृष्ण के पैर के नीचे आ रुका, जहाँ उन्होंने पत्ता छिपाया था।
बर्बरीक ने ब्राह्मण से कहा, “ब्राह्मण देव! एक पत्ता आपके पैर के नीचे है। कृपया अपना पैर हटाएँ, ताकि मेरा बाण अपना कार्य पूरा कर सके।”
श्रीकृष्ण बर्बरीक की इस अद्भुत शक्ति, उनकी सूक्ष्म दृष्टि और उनके बाणों की अचूकता को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने अपना पैर हटाया, और बाण ने उस पत्ते को भी भेद दिया और फिर बर्बरीक के तरकश में वापस आ गया।
महाबलिदान की माँग और दिव्य रहस्योद्घाटन
अब श्रीकृष्ण ने अपना ब्राह्मण वेश त्याग दिया और अपने वास्तविक चतुर्भुज रूप में प्रकट हुए। उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म शोभायमान थे। उनके दर्शन कर बर्बरीक भाव-विभोर हो गए। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि स्वयं भगवान उनसे मिलने आएंगे। वे तुरंत भगवान के चरणों में गिर पड़े और उनकी स्तुति करने लगे।
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को उठाया और प्रेम से कहा, “उठो, बर्बरीक! मैं तुम्हारी शक्ति, तुम्हारी प्रतिज्ञा और तुम्हारी भक्ति से अत्यंत प्रसन्न हूँ। परंतु, इस युद्ध को धर्म की स्थापना के लिए संपन्न होना अत्यंत आवश्यक है। यह युद्ध केवल कौरवों और पांडवों के बीच का संघर्ष नहीं है, बल्कि यह धर्म और अधर्म के बीच का निर्णायक संघर्ष है, जिसके माध्यम से पृथ्वी पर धर्म का पुनः स्थापित होना है। इस युद्ध से पहले एक ऐसे महान बलिदान की आवश्यकता है जो इस भूमि को पवित्र कर सके और धर्म की विजय सुनिश्चित कर सके।”
बर्बरीक ने विनम्रतापूर्वक और श्रद्धापूर्वक पूछा, “हे प्रभु! आप मुझसे क्या चाहते हैं? यदि मेरे प्राण भी इस धर्म युद्ध के लिए आवश्यक हैं, तो मैं सहर्ष देने को तैयार हूँ। आपके चरणों में मेरे प्राणों का क्या मोल?”
श्रीकृष्ण ने गंभीर स्वर में कहा, “हाँ, बर्बरीक! इस युद्ध में सबसे बड़े वीर के बलिदान की आवश्यकता है। तुम इस समय पृथ्वी पर सबसे बड़े वीर हो। तुम्हारी शक्ति तीनों लोकों को भी क्षण भर में नष्ट कर सकती है। यदि तुम युद्ध में भाग लोगे, तो यह युद्ध अपने वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर पाएगा। तुम्हारी प्रतिज्ञा के कारण यह युद्ध कभी समाप्त नहीं होगा, या फिर एक ही क्षण में दोनों सेनाओं का विनाश हो जाएगा, जिससे धर्म की वास्तविक स्थापना नहीं हो पाएगी। इसलिए, मुझे तुम्हारे शीश का बलिदान चाहिए। यह बलिदान इस युद्ध को पवित्र करेगा और धर्म की विजय सुनिश्चित करेगा।”
बर्बरीक यह सुनकर क्षण भर के लिए स्तब्ध रह गए। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि स्वयं भगवान उनसे ऐसा बलिदान माँगेंगे। परंतु, उनकी भक्ति और धर्मनिष्ठा इतनी प्रबल थी कि उन्होंने तुरंत स्वयं को संभाला। उन्हें यह समझ आ गया कि यह कोई साधारण माँग नहीं, बल्कि ईश्वरीय लीला का एक हिस्सा है।
उन्होंने कहा, “हे केशव! यदि मेरे शीश का बलिदान धर्म की स्थापना के लिए आवश्यक है, और यदि यह आपकी इच्छा है, तो मैं इसे सहर्ष स्वीकार करता हूँ। मेरे लिए इससे बड़ा सौभाग्य क्या हो सकता है कि मेरे प्राण आपके चरणों में समर्पित हों। परंतु, मेरी एक अंतिम इच्छा है। मैं इस पूरे महाभारत युद्ध को अपनी आँखों से देखना चाहता हूँ। कृपया मुझे ऐसा वरदान दें।”
श्रीकृष्ण बर्बरीक के इस अद्वितीय त्याग, उनकी अटूट भक्ति और उनकी धर्मनिष्ठा से अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, “तथास्तु, बर्बरीक! तुम्हारी यह इच्छा अवश्य पूरी होगी। मैं तुम्हारे शीश को इस युद्धभूमि के सबसे ऊँचे स्थान पर स्थापित करूँगा, जहाँ से तुम पूरे युद्ध को अपनी आँखों से देख सकोगे। और इतना ही नहीं, कलयुग में तुम मेरे ही नाम ‘श्याम’ से पूजे जाओगे। जो भी भक्त तुम्हारे दर्शन करेगा या तुम्हें स्मरण करेगा, उसके समस्त कष्ट दूर होंगे और उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण होंगी। तुम ‘हारे का सहारा’ बनोगे और अपने भक्तों का उद्धार करोगे।”
यह कहकर, भगवान श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र का आह्वान किया और बर्बरीक के शीश को उनके धड़ से अलग कर दिया। बर्बरीक ने बिना किसी भय या संकोच के अपना शीश भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। यह एक ऐसा बलिदान था जिसने स्वयं देवताओं को भी चकित कर दिया, क्योंकि यह त्याग और भक्ति का सर्वोच्च उदाहरण था।
कुरुक्षेत्र युद्ध के दिव्य साक्षी
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक के शीश को कुरुक्षेत्र के पास एक ऊँची पहाड़ी पर स्थापित कर दिया। यह स्थान ऐसा था जहाँ से बर्बरीक का शीश पूरे युद्धक्षेत्र को स्पष्ट रूप से देख सकता था। बर्बरीक ने वहाँ से पूरे अठारह दिनों तक चले महाभारत के भीषण युद्ध को देखा। उनकी आँखों में कोई भय नहीं था, केवल धर्म के प्रति निष्ठा और भगवान की लीला को देखने की उत्कंठा थी।
परंतु, बर्बरीक को युद्ध में केवल योद्धाओं का रक्तपात, शस्त्रों की झंकार, या सैनिकों का चीत्कार नहीं दिखाई दिया। उन्हें एक अद्भुत और दिव्य दृश्य दिखाई दिया। उन्हें केवल भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र ही दिखाई दिया, जो युद्धभूमि में घूम रहा था और अधर्मियों का संहार कर रहा था। बर्बरीक ने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण ही हर योद्धा के पीछे खड़े थे, चाहे वह पांडव हो या कौरव। वे ही युद्ध का संचालन कर रहे थे, वे ही धर्म की रक्षा कर रहे थे, और वे ही अधर्म का नाश कर रहे थे।
बर्बरीक को यह स्पष्ट हो गया कि यह युद्ध वास्तव में भगवान की लीला थी, एक दिव्य नाटक था, जिसमें हर कोई केवल एक मोहरा था, और स्वयं भगवान ही इसके सूत्रधार थे। उन्हें यह भी दिखाई दिया कि जिन योद्धाओं को वे शक्तिशाली मान रहे थे, वे भी भगवान की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिला सकते थे। यह दर्शन उनके लिए एक गहरा आध्यात्मिक अनुभव था, जिसने उन्हें माया के बंधन से मुक्त कर दिया और उन्हें परम सत्य का साक्षात्कार कराया।
युद्धोपरांत की चर्चा और बर्बरीक का दिव्य ज्ञान
जब अठारह दिनों का भीषण युद्ध समाप्त हुआ और पांडवों की विजय हुई, तो पांडवों में यह चर्चा छिड़ गई कि इस युद्ध में सबसे बड़ा योद्धा कौन था? किसने इस विजय में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई? हर कोई अपनी-अपनी वीरता और योगदान का बखान कर रहा था।
अर्जुन ने कहा कि उन्होंने अपनी गांडीव की शक्ति से कौरवों का संहार किया और विजय दिलाई। भीम ने अपनी गदा के बल का बखान किया, जिससे उन्होंने दुर्योधन जैसे शक्तिशाली योद्धाओं को परास्त किया। युधिष्ठिर ने अपनी धर्मनिष्ठा और सत्यवादिता को श्रेय दिया, जिसके कारण उन्हें धर्मराज कहा गया। नकुल और सहदेव ने भी अपने-अपने योगदान गिनाए, जिसमें उनकी युद्ध कला और निष्ठा शामिल थी।
जब यह चर्चा चल रही थी, तब भगवान श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “आप सभी अपनी-अपनी वीरता का बखान कर रहे हैं, परंतु इस युद्ध का वास्तविक साक्षी तो कोई और है। वह बता सकता है कि इस युद्ध में सबसे बड़ा योद्धा कौन था और विजय का श्रेय किसे जाता है।”
पांडवों ने आश्चर्य से पूछा, “वह कौन है, प्रभु? क्या कोई ऐसा भी है जिसने इस पूरे युद्ध को देखा हो और हममें से कोई उसे जानता न हो?”
श्रीकृष्ण ने उन्हें बर्बरीक के शीश की ओर इशारा किया, जो पहाड़ी पर स्थापित था। उन्होंने पांडवों को बर्बरीक की कहानी और उनके बलिदान के बारे में बताया। पांडव बर्बरीक के शीश के पास गए और उनसे पूछा कि उन्होंने युद्ध में क्या देखा और विजय का श्रेय किसे जाता है।
बर्बरीक के शीश से दिव्य और स्पष्ट वाणी निकली, जिसने सभी को चकित कर दिया, “हे पांडवों! मैंने इस पूरे युद्ध में केवल एक ही शक्ति को कार्य करते हुए देखा। मैंने देखा कि भगवान श्रीकृष्ण का सुदर्शन चक्र ही युद्धभूमि में घूम रहा था और अधर्मियों का संहार कर रहा था। मैंने देखा कि हर योद्धा के पीछे स्वयं भगवान श्रीकृष्ण खड़े थे, और वे ही युद्ध का संचालन कर रहे थे। वे ही मार रहे थे और वे ही बचा रहे थे। इस युद्ध में वास्तविक योद्धा केवल भगवान श्रीकृष्ण थे, और विजय का श्रेय उन्हीं को जाता है। आप सभी केवल निमित्त मात्र थे, जिन्होंने उनकी इच्छा को पूरा किया।”
बर्बरीक की इस दिव्य वाणी को सुनकर पांडव चकित रह गए और उन्हें भगवान श्रीकृष्ण की महिमा का वास्तविक ज्ञान हुआ। उन्हें समझ आया कि वे केवल मोहरे थे, और युद्ध के वास्तविक कर्ता-धर्ता तो स्वयं भगवान ही थे। यह उनके अहंकार को तोड़ने और उन्हें विनम्रता सिखाने का एक महत्वपूर्ण क्षण था।
‘खाटू श्याम’ नाम का प्रादुर्भाव और अमरता
बर्बरीक के इस महान त्याग, उनकी अटूट भक्ति और उनके दिव्य दर्शन से भगवान श्रीकृष्ण अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने बर्बरीक को एक और महान वरदान दिया, जिसने उन्हें अमरता और देवत्व प्रदान किया।
श्रीकृष्ण ने कहा, “हे बर्बरीक! तुमने मेरे लिए जो त्याग किया है, वह अद्वितीय है। तुमने धर्म की स्थापना के लिए अपना सर्वोच्च बलिदान दिया है। आज से तुम मेरे ही नाम ‘श्याम’ से पूजे जाओगे। ‘श्याम’ मेरा ही एक नाम है, और तुम मेरे ही अंश के रूप में कलयुग में पूजे जाओगे। कलयुग में जो भी भक्त तुम्हारे इस पवित्र स्थान पर आकर तुम्हारी पूजा करेगा, उसके समस्त दुख दूर होंगे, उसके मनोरथ पूर्ण होंगे, और उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी। तुम्हारा यह स्थान ‘खाटू’ नाम से विख्यात होगा, और तुम ‘खाटू श्याम’ के नाम से संसार भर में पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्तों का उद्धार होगा, और तुम उनके कष्टों को हरने वाले देवता बनोगे। तुम ‘हारे का सहारा’ बनोगे, क्योंकि जो भी जीवन में हार चुका होगा, उसे तुम अपनी कृपा से सहारा दोगे।”
इस प्रकार, भगवान श्रीकृष्ण के वरदान से बर्बरीक ‘खाटू श्याम’ के रूप में अमर हो गए। उनका पवित्र स्थान राजस्थान के सीकर जिले में स्थित खाटू गाँव में है, जहाँ आज भी उनका भव्य मंदिर है और करोड़ों भक्त दूर-दूर से उनके दर्शन के लिए आते हैं। उन्हें ‘शीश के दानी’ के नाम से भी पुकारा जाता है, क्योंकि उन्होंने धर्म के लिए अपना शीश दान कर दिया था।
खाटू श्याम की महिमा और आज के संदर्भ में प्रासंगिकता
खाटू श्याम जी की महिमा अपरंपार है। उन्हें ‘कलियुग के देवता’ के रूप में पूजा जाता है, और उनकी ख्याति भारत के कोने-कोने में फैल चुकी है। ऐसा माना जाता है कि जो भी भक्त सच्चे मन से उनकी शरण में आता है, उसके सभी दुख दूर हो जाते हैं और उसकी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं। उन्हें ‘हारे का सहारा’ कहा जाता है, क्योंकि वे उन भक्तों को सहारा देते हैं जो जीवन में हर तरफ से हार चुके होते हैं और जिनके पास कोई और आशा नहीं बचती। वे अपने भक्तों की हर पुकार सुनते हैं और उन्हें संकटों से उबारते हैं।
खाटू श्याम जी की कथा हमें कई महत्वपूर्ण शिक्षाएँ देती है, जो आज के आधुनिक युग में भी उतनी ही प्रासंगिक हैं:
- त्याग और बलिदान का महत्व: बर्बरीक ने धर्म की स्थापना के लिए अपने प्राणों का सर्वोच्च बलिदान दिया। यह हमें सिखाता है कि बड़े उद्देश्यों के लिए व्यक्तिगत स्वार्थों और यहाँ तक कि जीवन का त्याग करना कितना महत्वपूर्ण है। यह हमें निस्वार्थता और परोपकार की भावना को अपनाने के लिए प्रेरित करता है।
- अटूट भक्ति और विश्वास: बर्बरीक की भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अटूट भक्ति थी। उन्होंने बिना किसी प्रश्न के भगवान की आज्ञा का पालन किया, भले ही वह उनके जीवन का बलिदान ही क्यों न हो। यह हमें सच्ची भक्ति का मार्ग दिखाता है, जहाँ भक्त अपने आराध्य पर पूर्ण विश्वास रखता है और उसकी इच्छा को अपनी इच्छा से ऊपर मानता है।
- ईश्वरीय विधान और नियति: यह कथा दर्शाती है कि ब्रह्मांड में सब कुछ ईश्वरीय विधान के अनुसार होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से बलिदान इसलिए माँगा क्योंकि यह धर्म की स्थापना और युग परिवर्तन के लिए आवश्यक था। यह हमें सिखाता है कि जीवन में आने वाली हर घटना का एक गहरा अर्थ होता है, और हमें ईश्वरीय योजना पर विश्वास रखना चाहिए।
- अहंकार का त्याग और विनम्रता: बर्बरीक के दिव्य दर्शन ने पांडवों को यह सिखाया कि वे केवल निमित्त मात्र थे, और युद्ध के वास्तविक कर्ता-धर्ता तो स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही थे। यह हमें अपने ‘कर्तापन’ के अहंकार को तोड़ने और विनम्रता को अपनाने का संदेश देता है। जब हम यह समझते हैं कि हम केवल निमित्त मात्र हैं, तो जीवन में शांति और संतोष आता है।
- कलयुग में आशा का प्रतीक: भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को कलयुग में अपने ही नाम से पूजे जाने का वरदान दिया, जो यह दर्शाता है कि कलयुग में भी धर्म और भक्ति का मार्ग खुला है। जब अधर्म बढ़ता है और मनुष्य अनेक कष्टों से घिरा रहता है, तब भी भगवान अपने भक्तों को कभी नहीं छोड़ते, और वे विभिन्न रूपों में उनकी सहायता के लिए प्रकट होते हैं। खाटू श्याम जी कलयुग में भक्तों के लिए एक आश्रय और आशा का प्रतीक हैं।
खाटू श्याम जी का मंदिर आज भारत के सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थलों में से एक है। फाल्गुन मास में लगने वाला उनका वार्षिक मेला लाखों भक्तों को आकर्षित करता है, जो ‘जय श्री श्याम’ के जयकारों के साथ उनके दर्शन के लिए आते हैं। भक्तगण उन्हें ‘बाबा श्याम’ और ‘शीश के दानी’ के नाम से भी पुकारते हैं। उनकी पूजा में ‘निशान’ (ध्वज) चढ़ाने की परंपरा विशेष रूप से प्रचलित है, जिसे भक्त पैदल यात्रा करके खाटू तक ले जाते हैं, जो उनकी श्रद्धा और तपस्या का प्रतीक है।
यह कथा हमें यह भी बताती है कि भगवान की लीलाएँ अगम्य और अकल्पनीय होती हैं। वे अपने भक्तों के कल्याण के लिए और धर्म की स्थापना के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। बर्बरीक का बलिदान केवल एक योद्धा का बलिदान नहीं था, बल्कि यह एक भक्त का अपने आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण था, जिसने उसे अमरता और देवत्व प्रदान किया।
आज भी, जब कोई भक्त ‘खाटू श्याम’ का नाम लेता है, तो उसे भगवान श्रीकृष्ण की कृपा और बर्बरीक के त्याग की याद आती है। यह नाम केवल एक देवता का नहीं, बल्कि एक ऐसे दिव्य संबंध का प्रतीक है जो भक्ति, विश्वास और त्याग की नींव पर बना है। खाटू श्याम जी वास्तव में भगवान श्रीकृष्ण के ही अंश हैं, जो कलयुग में अपने भक्तों का उद्धार करने और उन्हें जीवन के कष्टों से मुक्ति दिलाने के लिए अवतरित हुए हैं। उनकी कहानी हमें यह सिखाती है कि सच्ची भक्ति और निस्वार्थ त्याग कभी व्यर्थ नहीं जाते, बल्कि वे हमें अमरता और ईश्वरीय कृपा प्रदान करते हैं। उनकी जय हो!