
मैं कैसे जियु मेरे श्याम बता
यह कहानी है अर्जुन की, एक महान योद्धा, जो अपने जीवन के सबसे कठिन दौर से गुजर रहा था। वह कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में खड़ा था, जहाँ उसके अपने परिवार और गुरु उसके दुश्मन बने हुए थे। उसके मन में एक गहरा द्वंद्व चल रहा था। वह धर्म और अधर्म के बीच के अंतर को समझने में असमर्थ था। वह भगवान कृष्ण से प्रार्थना कर रहा था, “मैं कैसे जियु मेरे श्याम बता? तू बसता है मेरी धड़कन में, मैं कैसे जियु मेरे श्याम बता जब कुछ भी नहीं मेरी किस्मत में।”
अर्जुन एक असाधारण धनुर्धर थे, उनकी वीरता और कौशल की गाथाएँ दूर-दूर तक फैली थीं। लेकिन इस युद्ध ने उन्हें अंदर से झकझोर दिया था। वह अपने प्रियजनों के खिलाफ लड़ने के विचार से ही कांप उठे थे। उनके मन में चल रहे तूफान को शांत करने वाला कोई नहीं था। वह मोह और कर्तव्य के बीच झूल रहे थे।
युद्ध की शुरुआत से पहले, अर्जुन ने कृष्ण से मार्गदर्शन मांगा था। कृष्ण, जो उनके सारथी और मित्र थे, ने उन्हें भगवत गीता का उपदेश दिया था। उन्होंने अर्जुन को जीवन के सत्य, कर्म के महत्व और धर्म के मार्ग पर चलने के बारे में बताया था। लेकिन, युद्ध की भयावहता के बीच, अर्जुन को कृष्ण के शब्द धूमिल होते हुए लग रहे थे।
अर्जुन ने कृष्ण से कहा, “तेरे प्यार में हम दीवाने हैं, तेरे प्यार ने सच्चा माने हैं, क्यों फेर लिया मुंह बेटे से, क्यों रख लिया पत्थर सीने पे?” उनकी आवाज में दर्द और निराशा थी। उन्हें लग रहा था कि कृष्ण ने उनसे मुंह मोड़ लिया है, कि वे इस कठिन समय में अकेले हैं।
कृष्ण ने अर्जुन की व्याकुलता को समझा। वे जानते थे कि अर्जुन एक असाधारण परिस्थिति का सामना कर रहे हैं। उन्होंने अर्जुन को शांत करने की कोशिश की और उन्हें याद दिलाया कि वे हमेशा उनके साथ हैं। उन्होंने कहा कि यह युद्ध केवल दो सेनाओं के बीच नहीं है, बल्कि यह धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध है। उन्होंने अर्जुन को उनके कर्तव्य का पालन करने और बिना किसी मोह के लड़ने के लिए प्रेरित किया।
कृष्ण ने अर्जुन को उनके पिछले जन्मों की याद दिलाई और उन्हें यह एहसास कराया कि आत्मा अमर है। उन्होंने अर्जुन को समझाया कि यह युद्ध केवल शरीर के स्तर पर है, आत्मा तो अविनाशी है। उन्होंने अर्जुन को कर्म के सिद्धांत को समझाया और कहा कि हर व्यक्ति को अपने कर्मों का फल भुगतना पड़ता है।
कृष्ण ने अर्जुन को यह भी बताया कि भगवान कभी भी अपने भक्तों से मुंह नहीं मोड़ते हैं। वे हमेशा उनके साथ होते हैं, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों। उन्होंने अर्जुन को धैर्य रखने और अपने कर्तव्य पर ध्यान केंद्रित करने के लिए कहा।
युद्ध के दौरान, अर्जुन को कई कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। उन्हें अपने गुरु द्रोणाचार्य और अपने पितामह भीष्म के खिलाफ भी लड़ना पड़ा। यह उनके लिए एक बहुत ही भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण समय था। उन्हें लग रहा था कि उनका दिल टूट जाएगा।
एक बार, अर्जुन ने युद्ध में लगभग हार मान ली थी। वह अपने गांडीव को नीचे रखने ही वाले थे कि तभी कृष्ण ने उन्हें रोका। कृष्ण ने उन्हें उनकी प्रतिज्ञा याद दिलाई और उन्हें लड़ने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने अर्जुन को यह भी बताया कि यह युद्ध केवल उनकी व्यक्तिगत पीड़ा के बारे में नहीं है, बल्कि यह धर्म की स्थापना के लिए भी है।
कृष्ण के वचनों ने अर्जुन को नई ऊर्जा और प्रेरणा दी। उन्होंने फिर से अपना गांडीव उठाया और पूरी शक्ति से लड़े। उन्होंने अंततः युद्ध जीता और धर्म की स्थापना की।
युद्ध के बाद, अर्जुन को अपनी जीत पर गर्व नहीं था। वे जानते थे कि यह जीत केवल कृष्ण के मार्गदर्शन और कृपा के कारण ही संभव हो पाई थी। उन्होंने कृष्ण के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की और उन्हें अपने जीवन का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बताया।
इस कहानी से हमें यह सीख मिलती है कि जीवन में हमें कई बार कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। ऐसे समय में, हमें निराश नहीं होना चाहिए और भगवान पर विश्वास रखना चाहिए। वे हमेशा हमारे साथ होते हैं और हमें सही मार्ग दिखाते हैं। हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए और बिना किसी मोह के अपने कर्म करते रहना चाहिए।
यह कहानी हमें यह भी सिखाती है कि भगवान और भक्त के बीच का संबंध अटूट होता है। भगवान हमेशा अपने भक्तों की सुनते हैं और उनकी मदद करते हैं। हमें हमेशा भगवान के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए और उनके आशीर्वाद के लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए।
विस्तृत कहानी
यह कहानी महाभारत की पृष्ठभूमि पर आधारित है, लेकिन इसमें कुछ काल्पनिक तत्व भी शामिल हैं।
अर्जुन, एक महान योद्धा, कुरुक्षेत्र के युद्ध के मैदान में खड़े थे। उनके चारों ओर युद्ध की भयंकर गर्जना थी। शंख, नगाड़े और तलवारों की झंकार से वातावरण गूंज रहा था। उनके अपने परिवार के सदस्य और गुरु, भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य, विरोधी सेना में थे। अर्जुन का मन दुविधाओं से भरा हुआ था। वह अपने प्रियजनों के खिलाफ लड़ने के विचार से ही कांप उठे थे।
“मैं कैसे जियु मेरे श्याम बता? तू बसता है मेरी धड़कन में, मैं कैसे जियु मेरे श्याम बता जब कुछ भी नहीं मेरी किस्मत में,” अर्जुन ने अपने सारथी, भगवान कृष्ण से पूछा। उनकी आवाज में गहरी निराशा थी।
कृष्ण, जो अर्जुन के मित्र और मार्गदर्शक भी थे, ने उनकी आँखों में देखा। वे जानते थे कि अर्जुन एक कठिन नैतिक दुविधा का सामना कर रहे हैं। उन्होंने अर्जुन को शांत करने की कोशिश की, लेकिन युद्ध की वास्तविकता अर्जुन के मन में गहरे तक समाई हुई थी।
“अर्जुन,” कृष्ण ने कहा, “यह युद्ध केवल दो सेनाओं के बीच नहीं है। यह धर्म और अधर्म के बीच का युद्ध है। तुम्हें अपने कर्तव्य का पालन करना होगा।”
“लेकिन, मेरे कर्तव्य?” अर्जुन ने पूछा। “मेरे कर्तव्य का अर्थ है अपने ही परिवार के सदस्यों को मारना? मेरे गुरु, जिन्होंने मुझे धनुर्विद्या सिखाई, उन्हें मारना? यह कैसा धर्म है?”
कृष्ण ने मुस्कुराया। “धर्म वह है जो सत्य है, जो न्याय है। यह वह है जो सभी के लिए अच्छा है। और कभी-कभी, अर्जुन, धर्म को बनाए रखने के लिए युद्ध करना आवश्यक होता है।”
अर्जुन अभी भी असंतुष्ट थे। “तेरे प्यार में हम दीवाने हैं, तेरे प्यार ने सच्चा माने हैं, क्यों फेर लिया मुंह बेटे से, क्यों रख लिया पत्थर सीने पे?” उन्होंने कृष्ण से पूछा। उन्हें लग रहा था कि भगवान ने उन्हें त्याग दिया है।
कृष्ण ने अपना हाथ अर्जुन के कंधे पर रखा। “मैंने तुमसे मुंह नहीं मोड़ा है, अर्जुन। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं। लेकिन तुम्हें यह समझना होगा कि जीवन में दुख और संघर्ष अपरिहार्य हैं। वे हमें मजबूत बनाते हैं, हमें सिखाते हैं।”
युद्ध शुरू हो गया था। अर्जुन ने अपना गांडीव उठाया, लेकिन उनके हाथ कांप रहे थे। उन्होंने भीष्म पितामह को देखा, जो कौरव सेना का नेतृत्व कर रहे थे। भीष्म ने अर्जुन को आशीर्वाद दिया था, लेकिन अब वे एक-दूसरे के खिलाफ खड़े थे।
अर्जुन ने कृष्ण से पूछा, “मैं कैसे लड़ सकता हूं, कृष्ण? मैं अपने पितामह पर बाण कैसे चला सकता हूं? मेरे हाथ नहीं उठ रहे।”
कृष्ण ने कहा, “तुम्हें अपने व्यक्तिगत संबंधों से ऊपर उठना होगा, अर्जुन। तुम्हें यह देखना होगा कि यह युद्ध कितना महत्वपूर्ण है। यदि तुम नहीं लड़ोगे, तो अधर्म जीत जाएगा।”
अर्जुन ने गहरी सांस ली। उन्होंने कृष्ण के वचनों को याद किया। उन्होंने अपना गांडीव उठाया और एक बाण चलाया। बाण भीष्म के रथ के पास से गुजरा, लेकिन उन्हें लगा नहीं।
युद्ध कई दिनों तक चला। अर्जुन ने वीरता से लड़ाई लड़ी, लेकिन उनका मन अभी भी अशांत था। उन्होंने कई दुश्मनों को हराया, लेकिन हर जीत के साथ उन्हें दुख होता था। उन्हें लग रहा था कि वे अपने ही परिवार को मार रहे हैं।
एक दिन, अर्जुन ने कर्ण को देखा, जो उनका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी था। कर्ण एक महान योद्धा थे, और अर्जुन जानते थे कि उन्हें हराना बहुत मुश्किल होगा। लेकिन अर्जुन को यह भी पता था कि कर्ण अधर्म का साथ दे रहे हैं, और उन्हें हराना आवश्यक है।
अर्जुन और कर्ण के बीच भयंकर युद्ध हुआ। दोनों ही योद्धा शक्तिशाली थे, और युद्ध का परिणाम अनिश्चित था। अंत में, कृष्ण ने अर्जुन की मदद की। उन्होंने अर्जुन को एक विशेष बाण के बारे में बताया, जिसका उपयोग करके कर्ण को हराया जा सकता था।
अर्जुन ने उस बाण का उपयोग किया, और कर्ण मारे गए। अर्जुन को कर्ण को मारने का बहुत दुख हुआ, लेकिन वे जानते थे कि उन्होंने सही काम किया है।
युद्ध समाप्त हो गया था। पांडवों ने जीत हासिल की थी, लेकिन अर्जुन को इस जीत का कोई आनंद नहीं था। उन्होंने बहुत कुछ खो दिया था। उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों और मित्रों को खो दिया था। उन्होंने अपने गुरुओं को खो दिया था।
अर्जुन कृष्ण के पास गए। “मैंने युद्ध जीत लिया है, कृष्ण,” उन्होंने कहा, “लेकिन मैंने सब कुछ खो दिया है। मैं कैसे जियु, मेरे श्याम?”
कृष्ण ने अर्जुन को गले लगाया। “तुम अकेले नहीं हो, अर्जुन,” उन्होंने कहा। “मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूं। और तुमने कुछ भी नहीं खोया है। तुमने धर्म की स्थापना की है। तुमने वह किया है जो सही था।”
अर्जुन ने कृष्ण के वचनों पर विचार किया। उन्हें एहसास हुआ कि कृष्ण सही कह रहे हैं। उन्होंने धर्म की स्थापना की थी, और यह सबसे महत्वपूर्ण बात थी।
अर्जुन ने कृष्ण से कहा, “मैं आपको धन्यवाद देता हूं, कृष्ण। आपने मुझे सही मार्ग दिखाया। आपने मुझे सिखाया कि जीवन में दुख और संघर्ष अपरिहार्य हैं, लेकिन हमें कभी भी आशा नहीं छोड़नी चाहिए। आपने मुझे सिखाया कि धर्म सबसे महत्वपूर्ण है, और हमें हमेशा उसका पालन करना चाहिए।”
कृष्ण ने मुस्कुराया। “तुम हमेशा मेरे हृदय में रहोगे, अर्जुन। और मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा।”
अर्जुन ने कृष्ण को प्रणाम किया। उन्होंने अपना जीवन धर्म के मार्ग पर चलने का फैसला किया। उन्होंने जाना कि कृष्ण हमेशा उनके साथ हैं, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों। और उन्होंने अंततः शांति पाई।
इस कहानी का अंत इस बात पर जोर देता है कि भगवान हमेशा अपने भक्तों के साथ होते हैं, भले ही वे सबसे कठिन परिस्थितियों का सामना कर रहे हों। यह हमें धर्म के मार्ग पर चलने और कभी भी आशा न छोड़ने के महत्व के बारे में भी सिखाता है।