
अंतिम आस: वाराणसी से खाटू की पुकार
उत्तर प्रदेश की आध्यात्मिक राजधानी, वाराणसी, जिसे काशी और बनारस के नाम से भी जाना जाता है, अपनी प्राचीनता, धार्मिकता और गंगा नदी के किनारे बसे घाटों के लिए विश्व प्रसिद्ध है। यहाँ जीवन और मृत्यु का चक्र निरंतर चलता रहता है, और हर सुबह गंगा आरती एक अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करती है। इसी पवित्र नगरी के एक पुराने मोहल्ले में, एक साधारण वैद्य, वैद्यनाथ शास्त्री, का निवास था। उनकी उम्र लगभग साठ वर्ष थी, और उनके चेहरे पर एक गहरी चिंता की छाया छाई रहती थी, जो उनके जीवन में आए एक बड़े संकट का प्रतीक थी।
उत्तर प्रदेश की आध्यात्मिक राजधानी, वाराणसी, जिसे काशी और बनारस के नाम से भी जाना जाता है, केवल एक शहर नहीं, बल्कि एक जीवंत इतिहास है, एक बहती हुई संस्कृति है, और सनातन धर्म की आत्मा है। अपनी प्राचीनता के गौरव, धार्मिकता की गहरी जड़ों और माँ गंगा के पवित्र किनारे बसे घाटों के अनुपम सौंदर्य के लिए यह नगरी युगों-युगों से विश्व भर में प्रसिद्ध है। यहाँ, जीवन और मृत्यु का शाश्वत चक्र अविराम गति से चलता रहता है, हर क्षण एक नया अध्याय लिखता है। और हर सुबह, जब सूर्य की पहली किरणें गंगा के जल पर नृत्य करती हैं, दशाश्वमेध घाट पर होने वाली गंगा आरती एक अद्भुत, दिव्य दृश्य प्रस्तुत करती है, जो आत्मा को शांति और श्रद्धा से भर देती है।
इसी पवित्र नगरी के हृदय में, संकरी गलियों और प्राचीन इमारतों के बीच बसे एक पुराने मोहल्ले में, एक साधारण वैद्य, वैद्यनाथ शास्त्री, का निवास था। उनका छोटा सा, मिट्टी की दीवारों और खपरैल की छत वाला घर, पीढ़ी दर पीढ़ी से उनके परिवार का आश्रय रहा था। उनकी उम्र लगभग साठ वर्ष थी, और उनका शरीर वर्षों की मेहनत और चिंतन से थोड़ा झुक गया था। उनके चेहरे पर झुर्रियों का जाल बिछा हुआ था, जो उनके जीवन के अनुभवों की कहानी कहता था। लेकिन इन सबके बावजूद, उनकी आँखों में एक गहरी चिंता की छाया छाई रहती थी, एक बोझिल उदासी जो उनके शांत स्वभाव के विपरीत थी। यह चिंता उनके जीवन में आए एक बड़े संकट का प्रतीक थी, एक ऐसी चुनौती जिसने उनकी रातों की नींद और दिन का चैन छीन लिया था।
वैद्यनाथ शास्त्री एक प्रतिष्ठित और सम्मानित व्यक्ति थे। उन्होंने अपने पिता और दादा से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था और दशकों से ईमानदारी और समर्पण के साथ लोगों की सेवा कर रहे थे। उनकी जड़ी-बूटियों और पारंपरिक उपचारों में अद्भुत शक्ति थी, और दूर-दूर से लोग अपनी बीमारियों का इलाज कराने उनके पास आते थे। उनका शांत स्वभाव, मधुर वाणी और रोगी के प्रति सहानुभूति उन्हें न केवल एक कुशल वैद्य बनाती थी, बल्कि एक भरोसेमंद मित्र और सलाहकार भी बनाती थी। उन्होंने कभी भी किसी गरीब या जरूरतमंद से फीस नहीं ली थी, और हमेशा दूसरों की मदद करने के लिए तत्पर रहते थे।
लेकिन पिछले कुछ महीनों से, वैद्यनाथ शास्त्री की जिंदगी में एक ऐसा तूफान आया था जिसने सब कुछ उलट-पुलट कर दिया था। उनकी इकलौती पोती, आठ वर्षीय लाडली गौरी, एक रहस्यमय बीमारी से पीड़ित हो गई थी। धीरे-धीरे, गौरी का शरीर कमजोर होता जा रहा था, उसकी आँखों की चमक फीकी पड़ गई थी, और उसकी प्यारी मुस्कान कहीं खो गई थी। वैद्यनाथ शास्त्री ने अपनी पूरी विद्या और अनुभव लगा दिया था, लेकिन कोई भी दवा या उपचार गौरी पर असर नहीं कर रहा था। उन्होंने शहर के बड़े-बड़े डॉक्टरों और हकीमों को भी दिखाया, लेकिन सबने हार मान ली थी। गौरी की बीमारी बढ़ती ही जा रही थी, और वैद्यनाथ शास्त्री हर पल अपनी प्यारी पोती को खोने के डर से व्याकुल रहते थे।
गौरी न केवल उनकी पोती थी, बल्कि उनके बुढ़ापे का सहारा और उनके जीवन का एकमात्र आनंद भी थी। उनकी पत्नी का स्वर्गवास कई साल पहले हो चुका था, और उनका एकमात्र पुत्र शहर से दूर नौकरी करता था, कभी-कभार ही आ पाता था। ऐसे में, गौरी ही उनके खाली घर को किलकारियों से भरती थी और उनके उदास जीवन में खुशियों के रंग भरती थी। गौरी की बीमारी ने वैद्यनाथ शास्त्री को भीतर से तोड़ दिया था। वे हर पल беспомощность महसूस करते थे, अपनी विद्या और अनुभव को निष्फल देखकर उनका हृदय पीड़ा से भर जाता था।
दिन-रात वे गौरी के सिरहाने बैठे रहते, उसकी कमजोर नाड़ी को महसूस करते और भगवान से प्रार्थना करते कि उनकी पोती को ठीक कर दें। उन्होंने गंगा माँ से मन्नतें मांगी, काशी विश्वनाथ के मंदिर में अनगिनत दंडवत किए, और शहर के हर छोटे-बड़े मंदिर और मजार पर जाकर दुआएं मांगी। लेकिन गौरी की हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था। वैद्यनाथ शास्त्री धीरे-धीरे उम्मीद खोते जा रहे थे, और उनके चेहरे पर चिंता की छाया और भी गहरी होती जा रही थी।
एक रात, जब गौरी दर्द से कराह रही थी और वैद्यनाथ शास्त्री беспомощно उसे देख रहे थे, तो उनके मन में एक विचार आया। उन्होंने सुना था कि वाराणसी में एक रहस्यमय संत रहते हैं, जो किसी भी असाध्य बीमारी को ठीक करने की शक्ति रखते हैं। कुछ लोग उन्हें ‘औघड़ बाबा’ कहते थे, तो कुछ ‘त्रिकालदर्शी’। उनके बारे में कई अद्भुत कहानियाँ प्रचलित थीं, लेकिन किसी ने उन्हें वास्तव में देखा नहीं था। वैद्यनाथ शास्त्री हमेशा इन कहानियों को अंधविश्वास मानते थे, लेकिन आज, जब उनकी सारी कोशिशें नाकाम हो चुकी थीं, तो उन्हें उस रहस्यमय संत से मिलने की आखिरी उम्मीद दिखाई दी।
अगली सुबह, वैद्यनाथ शास्त्री ने अपनी लाठी उठाई और उस संत की तलाश में निकल पड़े। उन्हें पता नहीं था कि वह कहाँ रहते हैं, या उन्हें कैसे खोजा जाए। लेकिन अपनी पोती को बचाने की तीव्र इच्छाशक्ति के बल पर, उन्होंने वाराणसी की संकरी गलियों, भीड़भाड़ वाले बाजारों और सुनसान घाटों की खाक छाननी शुरू कर दी। उन्होंने हर उस व्यक्ति से पूछा जिसने उस संत के बारे में सुना था, हर मंदिर के पुजारी और हर भिखारी से जानकारी मांगी। कुछ लोगों ने उन्हें पागल कहा, कुछ ने दया दिखाई, लेकिन किसी को भी उस रहस्यमय संत के ठिकाने के बारे में निश्चित रूप से नहीं पता था।
कई दिन और रातें बीत गईं। वैद्यनाथ शास्त्री थक चुके थे, उनका शरीर जवाब दे रहा था, लेकिन उनकी उम्मीद अभी भी जीवित थी। एक शाम, जब वे गंगा के किनारे उदास बैठे थे, तो एक बूढ़े साधु ने उनसे उनकी चिंता का कारण पूछा। वैद्यनाथ शास्त्री ने अपनी पोती की बीमारी और उस रहस्यमय संत को खोजने की अपनी व्यथा सुनाई। साधु ने ध्यान से उनकी बात सुनी और फिर मुस्कुराते हुए कहा, “चिंता मत करो, वैद्य जी। सच्ची श्रद्धा कभी व्यर्थ नहीं जाती। उस संत को खोजने के लिए तुम्हें कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। वे तो तुम्हारे भीतर ही विराजमान हैं।”
वैद्यनाथ शास्त्री साधु की बात समझ नहीं पाए। “क्या मतलब है आपका?” उन्होंने पूछा।
साधु ने उत्तर दिया, “वह संत कोई साधारण व्यक्ति नहीं हैं। वे तो माँ गंगा की कृपा और भगवान शिव का आशीर्वाद हैं। उन्हें पाने के लिए तुम्हें अपने हृदय की गहराई में झांकना होगा, अपनी आत्मा की आवाज सुननी होगी। सच्ची भक्ति और निष्काम सेवा ही उन्हें प्रसन्न कर सकती है।”
साधु की बातों ने वैद्यनाथ शास्त्री के मन में एक नया विचार जगाया। उन्होंने महसूस किया कि शायद वे बाहरी चमत्कार की तलाश में भटक रहे थे, जबकि असली शक्ति तो उनके अपने भीतर ही छिपी हुई थी। उन्होंने साधु को धन्यवाद दिया और अपने घर लौट आए।
उस रात, वैद्यनाथ शास्त्री ने पहली बार शांत मन से गौरी के सिर पर हाथ फेरा। उन्होंने अपनी सारी चिंता और निराशा को त्याग दिया और केवल अपनी पोती के शीघ्र स्वस्थ होने की प्रार्थना करने लगे। उन्होंने अपने जीवन के सभी अच्छे कर्मों को याद किया और भगवान से गौरी पर कृपा करने की विनती की।
अगली सुबह, जब सूर्य की किरणें उनके घर में प्रवेश कर रही थीं, वैद्यनाथ शास्त्री ने गौरी को जगाया। और जो उन्होंने देखा, उस पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। गौरी की आँखों में फिर से वही पुरानी चमक लौट आई थी, उसके चेहरे पर हल्की मुस्कान दिखाई दे रही थी, और उसका शरीर पहले से कहीं ज्यादा स्वस्थ लग रहा था।
धीरे-धीरे, गौरी पूरी तरह से ठीक हो गई। वैद्यनाथ शास्त्री और उनके परिवार की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने समझा कि उस साधु की बातें सच थीं। सच्ची श्रद्धा और निष्काम सेवा में ही वह शक्ति छिपी है जो हर संकट को दूर कर सकती है।
इस घटना के बाद, वैद्यनाथ शास्त्री का विश्वास और भी दृढ़ हो गया। उन्होंने अपनी सेवा और भी अधिक समर्पण के साथ जारी रखी और कभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी। वाराणसी के लोगों ने भी इस चमत्कार को अपनी आँखों से देखा और समझा कि इस पवित्र नगरी में केवल पत्थर और जल ही पवित्र नहीं हैं, बल्कि यहाँ के लोगों की आस्था और प्रेम में भी अद्भुत शक्ति है। और वैद्यनाथ शास्त्री, जिन्होंने कभी चिंता की गहरी छाया में अपना जीवन बिताया था, अब हमेशा एक शांत और संतोषपूर्ण मुस्कान के साथ लोगों की सेवा करते रहे, यह जानते हुए कि माँ गंगा और भगवान शिव की कृपा हमेशा उनके साथ है।
वैद्यनाथ शास्त्री एक प्रतिष्ठित और अनुभवी वैद्य थे। उन्होंने आयुर्वेद के प्राचीन ज्ञान का अध्ययन किया था और अपनी जड़ी-बूटियों और पारंपरिक उपचारों से अनगिनत लोगों को स्वस्थ किया था। उनका नाम पूरे वाराणसी में सम्मान से लिया जाता था। उनका एक भरा-पूरा परिवार था – उनकी पत्नी, सावित्री, और उनके दो बेटे, जो अब अपने-अपने परिवारों के साथ खुशहाल जीवन जी रहे थे।
लेकिन पिछले कुछ महीनों से वैद्यनाथ शास्त्री के जीवन में एक बड़ा संकट आ गया था। उन्हें एक गंभीर बीमारी ने घेर लिया था, जिसने उन्हें बिस्तर पर ला दिया था। उन्होंने कई बड़े डॉक्टरों से इलाज करवाया, लेकिन किसी भी दवा का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था। धीरे-धीरे उनकी सेहत बिगड़ती जा रही थी और उन्हें लगने लगा था कि अब उनके पास ज्यादा समय नहीं बचा है।
वैद्यनाथ शास्त्री हमेशा से ही धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति थे, लेकिन इस बीमारी ने उन्हें और भी निराश और कमजोर बना दिया था। उन्हें लगता था कि जैसे भगवान भी उनसे रूठ गए हों।
एक दिन, जब वैद्यनाथ शास्त्री बिस्तर पर लेटे हुए थे, तो उनकी पोती, राधिका, उनके पास आई। राधिका एक छोटी और प्यारी बच्ची थी, जिसकी आँखों में हमेशा चमक रहती थी। उसने अपने दादाजी का मुरझाया हुआ चेहरा देखा तो उसे बहुत दुख हुआ।
राधिका खाटू श्याम बाबा की बहुत बड़ी भक्त थी। उसने अपनी माँ से बाबा की कई कहानियाँ सुनी थीं और उसे पूरा विश्वास था कि बाबा हर दुख दूर करते हैं। उसने अपने दादाजी से कहा, “दादाजी, आप इतने उदास क्यों हैं? आपको खाटू श्याम बाबा पर विश्वास रखना चाहिए। वे सब ठीक कर देंगे।”
वैद्यनाथ शास्त्री ने कमजोर आवाज में कहा, “बेटी, मैंने तो हर तरह का इलाज करवा लिया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। अब तो बस भगवान का ही सहारा है।”
राधिका ने कहा, “तो फिर आप बाबा श्याम की शरण में क्यों नहीं जाते? सुना है उनकी चौखट पर जो भी हार के आता है, वे उसे कभी खाली हाथ नहीं लौटाते।”
वैद्यनाथ शास्त्री को राधिका की बातों में थोड़ी उम्मीद दिखाई दी। उन्होंने खाटू श्याम बाबा के बारे में सुना तो था, लेकिन कभी उनके दरबार में जाने का अवसर नहीं मिला था। उन्हें लगा कि अब जब सारे रास्ते बंद हो गए हैं, तो एक बार बाबा की शरण में जाने में कोई हर्ज नहीं है।
उन्होंने अपने बेटों को बुलाया और अपनी इच्छा बताई कि वे एक बार खाटू धाम जाना चाहते हैं। उनके बेटों को अपने पिता की हालत देखकर बहुत दुख हुआ और वे तुरंत उन्हें खाटू ले जाने के लिए तैयार हो गए।
वैद्यनाथ शास्त्री को एक व्हीलचेयर पर बैठाकर वाराणसी से खाटू के लिए रवाना किया गया। यह यात्रा उनके लिए बहुत कष्टदायक थी, लेकिन उनके मन में एक ক্ষীণ सी उम्मीद बंधी हुई थी।
जब वे खाटू पहुँचे, तो वहाँ भक्तों का सैलाब उमड़ा हुआ था। वैद्यनाथ शास्त्री को व्हीलचेयर पर ही मंदिर के बाहर ले जाया गया। उनके बेटों ने उन्हें सहारा देकर बाबा श्याम की मूर्ति के सामने खड़ा किया।
वैद्यनाथ शास्त्री ने कमजोर हाथों से बाबा के चरणों में प्रणाम किया। उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उन्होंने अपनी सारी पीड़ा और निराशा बाबा के सामने व्यक्त की। उन्होंने कहा कि वे हर तरह से हार चुके हैं और अब सिर्फ बाबा का ही सहारा है।
मंदिर में कुछ देर रहने के बाद वैद्यनाथ शास्त्री को थोड़ा आराम महसूस हुआ। उन्हें ऐसा लगा जैसे बाबा ने उनकी पुकार सुन ली हो और उन्हें आश्वासन दिया हो कि सब ठीक हो जाएगा।
जब वे वापस वाराणसी लौट रहे थे, तो वैद्यनाथ शास्त्री की तबीयत में थोड़ा सुधार महसूस होने लगा। उन्हें पहले से कम कमजोरी लग रही थी और उनकी भूख भी थोड़ी बढ़ गई थी।
वाराणसी पहुँचकर उन्होंने फिर से अपना आयुर्वेदिक इलाज शुरू किया। इस बार, दवाओं का उन पर धीरे-धीरे असर होने लगा। उनकी सेहत में सुधार आने लगा और कुछ ही हफ्तों में वे पहले से काफी स्वस्थ हो गए।
वैद्यनाथ शास्त्री और उनके परिवार को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। उन्हें विश्वास हो गया था कि यह सब खाटू श्याम बाबा की कृपा से ही हुआ है। बाबा ने सच में उनकी सुनी थी और उन्हें नया जीवन दिया था।
स्वस्थ होने के बाद, वैद्यनाथ शास्त्री ने तुरंत खाटू जाने का फैसला किया। इस बार वे व्हीलचेयर पर नहीं, बल्कि अपने पैरों पर चलकर गए थे। उनके साथ उनकी पत्नी, बेटे और प्यारी पोती राधिका भी थी।
खाटू पहुँचकर वैद्यनाथ शास्त्री ने बाबा श्याम के चरणों में अपना सिर झुकाया और उन्हें कोटि-कोटि धन्यवाद दिया। उन्होंने मंदिर में गरीबों को दान दिया और भक्तों को भोजन कराया। उनकी आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे।
उन्होंने मंदिर में “श्याम थारी चौखट पे आयो हूँ हार के” भजन सुना, तो उन्हें अपनी पिछली यात्रा याद आ गई। उन्हें एहसास हुआ कि जब इंसान हर तरफ से हार जाता है, तो बाबा की चौखट ही उसकी अंतिम आस होती है।
वैद्यनाथ शास्त्री ने खाटू में कुछ दिन बिताए और वहाँ के भक्तिमय माहौल में शांति और आनंद का अनुभव किया। उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे वे एक नए जीवन की शुरुआत कर रहे हों।
जब वे वापस वाराणसी लौटे, तो उनका हृदय बाबा श्याम के प्रति अटूट प्रेम और श्रद्धा से भरा हुआ था। उन्होंने अपने घर में एक छोटा सा मंदिर बनवाया और उसमें बाबा की मूर्ति स्थापित की। वे हर दिन उनकी पूजा करते और उनके भजन गाते।
वैद्यनाथ शास्त्री की कहानी वाराणसी में लोगों को प्रेरित करने लगी। लोग उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जानने लगे जिसने अपनी हार के बाद भी भगवान पर विश्वास नहीं खोया और बाबा की कृपा से नया जीवन पाया।
उन्होंने लोगों को बताया कि जब जीवन में सब कुछ खत्म होता हुआ लगे, तो खाटू श्याम बाबा की शरण में जाने से कभी निराशा नहीं होती। बाबा हमेशा अपने भक्तों की सुनते हैं और उनकी हर मुश्किल को दूर करते हैं।
वैद्यनाथ शास्त्री ने अपने जीवन के बाकी दिन भगवान की भक्ति और लोगों की सेवा में बिताए। उन्होंने अपनी आयुर्वेदिक चिकित्सा जारी रखी और गरीबों का मुफ्त इलाज किया। उन्हें अब जीवन का असली अर्थ समझ में आ गया था – भगवान पर अटूट विश्वास रखना और दूसरों की मदद करना।
उनकी कहानी यह सिखाती है कि “श्याम थारी चौखट पे आयो हूँ हार के” सिर्फ एक भजन नहीं, बल्कि एक सच्चाई है। जब जीवन में कोई और सहारा नहीं बचता, तो खाटू श्याम बाबा की चौखट हमेशा खुली रहती है और जो भी भक्त हारकर उनकी शरण में आता है, उसे कभी खाली हाथ नहीं लौटना पड़ता। वाराणसी के इस वैद्य ने अपनी अंतिम आस बाबा श्याम की चौखट पर ही पाई थी, और बाबा ने उनकी लाज रखी थी।