
श्री कृष्ण से ज्ञानप्राप्ति
महाभारत के युद्ध की रणभेरी बज चुकी थी। कौरव और पांडव अपनी-अपनी सेनाओं के साथ कुरुक्षेत्र के मैदान में आमने-सामने खड़े थे। युद्ध की भीषणता से पहले, बर्बरीक, घटोत्कच के पराक्रमी पुत्र, अपनी दिव्य शक्तियों और अद्वितीय साहस के लिए जाने जाते थे। उन्होंने अपनी माँ से वादा किया था कि वे उस पक्ष का साथ देंगे जो युद्ध में हार रहा होगा।
बर्बरीक के पास तीन अमोघ बाण थे, जिनसे वे पूरे युद्ध का रुख पलट सकते थे। उनकी शक्ति इतनी थी कि अगर वे युद्ध में भाग लेते, तो कौरवों की हार निश्चित थी। लेकिन, श्रीकृष्ण ने एक चाल चली। उन्होंने बर्बरीक से दान में उनका शीश मांग लिया। बर्बरीक ने बिना किसी हिचकिचाहट के अपना शीश दान कर दिया।
बर्बरीक का कटा हुआ सिर युद्धभूमि में एक ऊँचे टीले पर स्थापित किया गया, जहाँ से वे पूरे युद्ध को देख सकते थे। युद्ध के दौरान, बर्बरीक ने देखा कि कैसे छल और कपट का सहारा लेकर पांडव जीत रहे थे। उन्होंने देखा कि कैसे भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महान योद्धाओं को छल से मारा गया।
बर्बरीक का मन ग्लानि से भर गया। उन्होंने सोचा, “मैंने अपनी माँ से वादा किया था कि मैं हारने वाले पक्ष का साथ दूंगा। लेकिन, यहाँ तो जीत और हार का निर्णय छल से हो रहा है। अगर मैं युद्ध में होता, तो शायद यह सब न होता।”
बर्बरीक ने अपनी पीड़ा श्रीकृष्ण को बताई। उन्होंने कहा, “हे कृष्ण, मैंने अपना शीश दान करके गलती कर दी। मैं चाहता था कि धर्म की रक्षा हो, लेकिन यहाँ तो अधर्म का बोलबाला है।”
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को समझाया, “हे बर्बरीक, तुम धर्म के रक्षक हो। तुम्हारा बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। कलियुग में, तुम खाटूश्याम के नाम से पूजे जाओगे। तुम्हारे भक्त तुमसे न्याय और धर्म की प्रार्थना करेंगे, और तुम उनकी मनोकामना पूरी करोगे।”
बर्बरीक को श्रीकृष्ण की बात से थोड़ी शांति मिली। उन्होंने कहा, “हे कृष्ण, मैं आपकी बात समझ गया। मेरा शीश यहाँ युद्धभूमि में रहेगा, और मेरा नाम कलियुग में अमर हो जाएगा।”
महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया, और पांडवों की जीत हुई। लेकिन, बर्बरीक के मन में आत्मग्लानि बनी रही। उन्होंने सोचा, “मैं चाहता था कि धर्म की जीत हो, लेकिन यहाँ तो छल और कपट की जीत हुई। क्या यही धर्म है?”
एक दिन, बर्बरीक ने श्रीकृष्ण से ज्ञान प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की। उन्होंने कहा, “हे कृष्ण, मुझे ज्ञान दीजिए। मुझे बताइए कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है। मुझे बताइए कि जीवन का उद्देश्य क्या है।”
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को भगवद्गीता का ज्ञान दिया। उन्होंने कहा, “हे बर्बरीक, धर्म वह है जो सत्य और न्याय के मार्ग पर चलता है। अधर्म वह है जो छल और कपट का सहारा लेता है। जीवन का उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है, जो आत्मा का परमात्मा से मिलन है।”
बर्बरीक ने श्रीकृष्ण के ज्ञान को ध्यान से सुना। उन्होंने कहा, “हे कृष्ण, मैं आपकी बात समझ गया। मैं अब समझ गया हूँ कि धर्म क्या है और अधर्म क्या है। मैं अब समझ गया हूँ कि जीवन का उद्देश्य क्या है।”
श्रीकृष्ण ने बर्बरीक को आशीर्वाद दिया। उन्होंने कहा, “हे बर्बरीक, तुम एक महान योद्धा हो। तुम धर्म के रक्षक हो। तुम्हारा नाम कलियुग में अमर हो जाएगा।”
बर्बरीक का शीश आज भी खाटू में स्थित है, जहाँ भक्त उनकी पूजा करते हैं। वे बर्बरीक को न्याय और धर्म का प्रतीक मानते हैं। बर्बरीक की कहानी हमें सिखाती है कि हमें हमेशा धर्म के मार्ग पर चलना चाहिए, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों।