
त्रिकालदर्शी का दिव्य संकल्प
बर्बरीक की तपस्या
प्राचीन काल में, हिमालय की दुर्गम चोटियों के मध्य, एक शांत और रमणीय वन था। इस वन में, घने वृक्षों और कल-कल बहती नदियों के बीच, एक छोटा सा आश्रम था। यह आश्रम घटोत्कच और नागकन्या अहिलवती के पुत्र, वीर बर्बरीक का निवास स्थान था। बर्बरीक, अपनी असाधारण वीरता और दिव्य शक्तियों के लिए जाने जाते थे।
बर्बरीक, बचपन से ही असाधारण प्रतिभा के धनी थे। उनके पिता, घटोत्कच, जो स्वयं एक महान योद्धा थे, ने उन्हें युद्ध कला और नीतिशास्त्र का गहन ज्ञान दिया था। उनकी माता, अहिलवती, जो एक नागकन्या थीं, ने उन्हें दिव्य शक्तियों और रहस्यमय ज्ञान से परिचित कराया था। बर्बरीक ने अपनी अद्वितीय प्रतिभा और गुरुजनों के आशीर्वाद से, शीघ्र ही सभी विद्याओं में पारंगतता प्राप्त कर ली।
एक दिन, बर्बरीक ने अपने गुरुजनों से पूछा, “गुरुवर, मैंने सभी विद्याओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया है, परंतु मेरे मन में एक प्रश्न है। मैं इस संसार में अपने जीवन का उद्देश्य जानना चाहता हूँ। मैं यह जानना चाहता हूँ कि मेरी शक्तियों का उपयोग किस प्रकार मानव कल्याण के लिए किया जा सकता है।”
उनके गुरु ने मुस्कुराते हुए कहा, “बर्बरीक, तुम्हारी जिज्ञासा उचित है। तुम्हारे भीतर एक महान योद्धा और एक दिव्य आत्मा का वास है। तुम्हें अपनी शक्तियों का उपयोग धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए करना चाहिए। तुम्हें एक ऐसी तपस्या करनी चाहिए, जिससे तुम्हें त्रिकालदर्शी बनने का वरदान प्राप्त हो सके। त्रिकालदर्शी बनकर, तुम भूत, वर्तमान और भविष्य को जान सकोगे और धर्म की रक्षा कर सकोगे।”
गुरु की आज्ञा पाकर, बर्बरीक ने हिमालय की सबसे ऊँची चोटी पर जाकर तपस्या करने का निश्चय किया। उन्होंने अपने माता-पिता से आशीर्वाद लिया और अपनी यात्रा प्रारंभ की। दुर्गम रास्तों और घने जंगलों को पार करते हुए, वे अंततः उस चोटी पर पहुँचे, जहाँ उन्हें तपस्या करनी थी।
उन्होंने एक शांत और एकांत स्थान चुना और अपनी तपस्या प्रारंभ की। उनकी तपस्या अत्यंत कठिन थी। वे कई दिनों तक बिना भोजन और जल के ध्यान में लीन रहे। उन्होंने अपनी इंद्रियों को वश में कर लिया और अपने मन को एकाग्र किया। उनकी तपस्या की तीव्रता से, देवताओं और ऋषियों के मन में भी हलचल मच गई।
इंद्र, देवताओं के राजा, बर्बरीक की तपस्या से चिंतित हो गए। उन्होंने सोचा कि यदि बर्बरीक को त्रिकालदर्शी बनने का वरदान मिल गया, तो वे देवताओं के लिए भी एक चुनौती बन सकते हैं। इसलिए, उन्होंने बर्बरीक की तपस्या को भंग करने का निश्चय किया।
इंद्र ने अपनी माया से अनेक विघ्न उत्पन्न किए। उन्होंने बर्बरीक के चारों ओर भयानक तूफान और वर्षा उत्पन्न की। उन्होंने बर्बरीक के मन में अनेक प्रलोभन उत्पन्न किए। परंतु, बर्बरीक अपनी तपस्या में अडिग रहे। उन्होंने सभी विघ्नों को पार करते हुए, अपने लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखा।
उनकी दृढ़ता और संकल्प को देखकर, ब्रह्मा, विष्णु और महेश, तीनों देव प्रसन्न हुए। वे बर्बरीक के सामने प्रकट हुए और उनसे वरदान माँगने को कहा।
बर्बरीक ने विनम्रतापूर्वक कहा, “हे देव, मैं त्रिकालदर्शी बनने का वरदान चाहता हूँ। मैं इस संसार में धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए अपनी शक्तियों का उपयोग करना चाहता हूँ।”
देवताओं ने बर्बरीक की इच्छा को स्वीकार किया और उन्हें त्रिकालदर्शी बनने का वरदान दिया। उन्होंने बर्बरीक को तीन दिव्य बाण भी दिए, जो उन्हें युद्ध में अजेय बना सकते थे।
वरदान प्राप्त करने के बाद, बर्बरीक ने देवताओं को धन्यवाद दिया और अपनी तपस्या समाप्त की। वे अपनी दिव्य शक्तियों और ज्ञान के साथ, अपने आश्रम लौट आए।
जब महाभारत का युद्ध होने वाला था, तब बर्बरीक ने अपनी माता से युद्ध में भाग लेने की अनुमति माँगी। उनकी माता ने उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा, “पुत्र, तुम अपनी शक्तियों का उपयोग धर्म की रक्षा के लिए करना। तुम उस पक्ष का साथ देना, जो निर्बल और असहाय हो।”
बर्बरीक ने अपनी माता की आज्ञा का पालन करने का वचन दिया और युद्ध भूमि की ओर प्रस्थान किया। जब वे युद्ध भूमि में पहुँचे, तो उन्होंने देखा कि दोनों पक्षों में महान योद्धा उपस्थित थे। उन्होंने अपनी त्रिकालदर्शी दृष्टि से युद्ध के परिणाम को देखा और जान लिया कि कौरवों की सेना अधिक शक्तिशाली है।
उन्होंने अपनी माता को दिए वचन का पालन करते हुए, निर्बल पांडवों का साथ देने का निश्चय किया। जब कृष्ण ने बर्बरीक की शक्ति और संकल्प को देखा, तो वे चिंतित हो गए। उन्होंने सोचा कि यदि बर्बरीक युद्ध में भाग लेंगे, तो वे अकेले ही कौरवों की पूरी सेना को पराजित कर देंगे।
कृष्ण ने बर्बरीक से उनकी शक्तियों के बारे में पूछा। बर्बरीक ने उन्हें अपने तीन दिव्य बाणों के बारे में बताया, जो किसी भी युद्ध में अजेय थे। कृष्ण ने बर्बरीक से एक दान माँगा। उन्होंने बर्बरीक से उनके शीश का दान माँगा।
बर्बरीक ने बिना किसी हिचकिचाहट के, कृष्ण की इच्छा को स्वीकार किया। उन्होंने अपने शीश को काटकर, कृष्ण को दान कर दिया। कृष्ण ने बर्बरीक के शीश को एक ऊँचे टीले पर स्थापित किया, जहाँ से वे पूरे युद्ध को देख सकते थे।
बर्बरीक के शीश ने पूरे युद्ध को देखा और धर्म की विजय का साक्षी बना। उनकी वीरता और बलिदान को आज भी याद किया जाता है। बर्बरीक की तपस्या और उनका बलिदान, धर्म और न्याय के प्रति उनके अटूट संकल्प का प्रतीक है।
इस प्रकार, बर्बरीक की तपस्या और उनका बलिदान, आज भी हमें धर्म और न्याय के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हैं। उनकी कहानी हमें सिखाती है कि सच्ची शक्ति और वीरता, धर्म और न्याय की रक्षा में निहित है।
युद्ध के अंत में, जब पांडवों की विजय हुई, तो उनके मन में एक छोटा सा संदेह उत्पन्न हुआ। वे यह जानना चाहते थे कि वास्तव में इस विजय का श्रेय किसे जाता है? क्या यह उनकी वीरता थी, कृष्ण की नीति, या बर्बरीक का मौन बलिदान? वे सभी बर्बरीक के उस टीले के पास एकत्रित हुए, जहाँ उनका दिव्य शीश अभी भी विराजमान था।
युधिष्ठिर ने विनम्रतापूर्वक पूछा, “हे वीर बर्बरीक, तुम तो त्रिकालदर्शी हो। कृपया हमें बताओ, इस विजय का सच्चा श्रेय किसे जाता है?”
बर्बरीक का शीश मुस्कुराया, और उसकी वाणी गूंजी, “हे राजन, यह विजय न तो तुम्हारी वीरता से, न ही कृष्ण की नीति से, और न ही मेरे बलिदान से हुई है। यह विजय धर्म की विजय है। यह उस सत्य की विजय है, जो हर युग में अधर्म पर विजय प्राप्त करता है। तुम सभी केवल निमित्त मात्र थे। असली योद्धा तो वह धर्म था, जिसने इस युद्ध को सत्य के मार्ग पर चलाया।”
बर्बरीक के शब्दों ने सभी पांडवों को आत्मचिंतन के लिए विवश कर दिया। उन्होंने महसूस किया कि अहंकार और अभिमान से परे, एक ऐसी शक्ति है जो ब्रह्मांड को नियंत्रित करती है, और वह शक्ति धर्म है। बर्बरीक के बलिदान ने उन्हें यह सिखाया कि सच्ची वीरता वह है जो निस्वार्थ भाव से धर्म की रक्षा करती है।
उस दिन के बाद, बर्बरीक का टीला एक तीर्थस्थल बन गया। लोग दूर-दूर से वहाँ आते, उनके दिव्य शीश के दर्शन करते और उनसे प्रेरणा लेते। बर्बरीक की कहानी, जो एक साधारण योद्धा से एक दिव्य प्रतीक बन गई, लोगों के दिलों में अमर हो गई।
कुछ समय बाद, उस टीले के पास एक छोटा सा मंदिर बनाया गया। मंदिर की दीवारों पर बर्बरीक के जीवन की कथाएँ चित्रित की गईं। वहाँ आने वाले भक्त उनकी तपस्या, उनके बलिदान और उनके दिव्य ज्ञान के बारे में सुनते, और अपने जीवन में धर्म के मार्ग पर चलने का संकल्प लेते।
एक रात, जब मंदिर में शांति छाई हुई थी, और तारे आकाश में टिमटिमा रहे थे, तो बर्बरीक के शीश से एक दिव्य प्रकाश निकला। वह प्रकाश धीरे-धीरे मंदिर के चारों ओर फैल गया, और एक शांत और मधुर ध्वनि सुनाई दी। वह ध्वनि बर्बरीक के दिव्य ज्ञान की थी, जो युगों-युगों तक लोगों को प्रेरित करती रहेगी।
उस ध्वनि ने कहा, “सच्चा योद्धा वह नहीं है जो युद्ध में विजय प्राप्त करता है, बल्कि वह है जो अपने अंतर्मन के युद्ध को जीत लेता है। सच्चा ज्ञान वह नहीं है जो पुस्तकों में लिखा है, बल्कि वह है जो हृदय में बसा है। और सच्चा बलिदान वह है जो निस्वार्थ भाव से धर्म की रक्षा के लिए किया जाता है।”
बर्बरीक की वाणी आज भी उस मंदिर में गूंजती है, और लोगों को यह याद दिलाती है कि धर्म और न्याय के मार्ग पर चलना ही जीवन का सच्चा उद्देश्य है। उनकी तपस्या और उनका बलिदान, एक दिव्य संकल्प का प्रतीक है, जो युगों-युगों तक लोगों को प्रेरित करता रहेगा।