
रत्नपुरी की लाज, खाटू श्याम के हाथ
सूर्य की पहली किरणें अरावली की पहाड़ियों को स्पर्श कर रही थीं, और रत्नपुरी (जयपुर) का शांत वातावरण धीरे-धीरे दैनिक जीवन की हलचल में बदल रहा था। गलियों में दूधवाले की साइकिल की घंटी और मंदिरों में बजते हुए प्रातःकालीन शंख की ध्वनि घुलमिल रही थी। इसी शांत नगरी में, एक छोटा सा परिवार अपनी साधारण सी दुनिया में खुशहाल जीवन बिता रहा था।
परिवार के मुखिया, रामलाल, एक ईमानदार और मेहनती व्यक्ति थे। वे शहर के बाहरी इलाके में एक छोटी सी किराने की दुकान चलाते थे। उनकी पत्नी, सीता, एक धर्मपरायण और ममतामयी महिला थीं, जो घर और दुकान दोनों की देखभाल करती थीं। उनका एक ही बेटा था, मोहन, जो अभी बारह वर्ष का था। मोहन पढ़ने-लिखने में तेज और स्वभाव से शांत था। रामलाल और सीता दोनों ही मोहन को अच्छी शिक्षा देना चाहते थे, ताकि वह जीवन में आगे बढ़ सके।
रामलाल की दुकान बरसों से चली आ रही थी और उनकी अच्छी साख थी। लोग उन पर विश्वास करते थे और नियमित रूप से उनसे सामान खरीदते थे। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक थी और वे संतुष्ट जीवन जी रहे थे। हर शाम, दुकान बंद करने के बाद, रामलाल और सीता मिलकर मोहन को पढ़ाते थे। सीता उसे रामायण और महाभारत की कहानियाँ सुनाती थीं, जिनमें धर्म, कर्तव्य और भक्ति के महत्व को समझाया जाता था। मोहन उन कहानियों को बड़े ध्यान से सुनता और उनसे सीखता था।
एक दिन, रत्नपुरी (जयपुर) में एक बड़ी मंडी लगने वाली थी। रामलाल ने सोचा कि इस अवसर का लाभ उठाकर वह अपनी दुकान के लिए थोक में सामान खरीद लेंगे, जिससे उन्हें कुछ बचत हो जाएगी। उन्होंने कुछ व्यापारियों से बात की और अच्छी गुणवत्ता वाले सामान का चुनाव किया। मंडी के दिन, वे अपनी बचत के सारे पैसे लेकर सुबह ही निकल पड़े।
मंडी में बहुत भीड़ थी और चारों ओर खरीदारों और विक्रेताओं की आवाजें गूंज रही थीं। रामलाल ने सावधानी से अपना काम किया और धीरे-धीरे सारा सामान खरीद लिया। जब वे वापस जाने के लिए मुड़े, तो भीड़ में किसी ने उन्हें धक्का दिया और उनके हाथ से पैसों की थैली गिर गई। जब तक वे संभल पाते, थैली गायब हो चुकी थी।
रामलाल হতप्रभ रह गए। उन्होंने चारों ओर देखा, लेकिन थैली का कहीं कोई निशान नहीं था। उनके पैरों तले की जमीन खिसक गई। यह उनकी महीनों की बचत थी, जिसे उन्होंने मंडी से सामान खरीदने के लिए जमा किया था। अब उनके पास दुकान के लिए नया सामान खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। उनका मन निराशा से भर गया।
वे खाली हाथ घर लौटे। सीता ने उन्हें उदास देखकर पूछा, “क्या हुआ? मंडी कैसी रही?”
रामलाल ने उन्हें सारी बात बताई। सुनकर सीता भी दुखी हो गईं, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने रामलाल को ढांढस बंधाया और कहा, “कोई बात नहीं, भगवान पर भरोसा रखो। उन्होंने ही हमें सब कुछ दिया है, वे ही हमारी मदद करेंगे।”
मोहन भी अपने माता-पिता को परेशान देखकर उदास था। उसने अपनी गुल्लक खोली, जिसमें उसने कुछ पैसे जमा किए थे, और उन्हें अपने पिता को देते हुए कहा, “पिताजी, ये मेरे पास हैं। शायद इनसे कुछ मदद हो सके।”
रामलाल और सीता की आँखें भर आईं। अपने छोटे से बेटे का यह प्यार और चिंता देखकर उन्हें थोड़ा सहारा मिला। लेकिन वे जानते थे कि मोहन के पैसों से कुछ नहीं होगा।
अगले कुछ दिन बहुत मुश्किल भरे थे। दुकान में पुराना सामान धीरे-धीरे खत्म हो रहा था और रामलाल के पास नया सामान खरीदने के लिए पैसे नहीं थे। उनके नियमित ग्राहक भी अब दूसरी दुकानों पर जाने लगे थे। रामलाल चिंतित रहने लगे और उन्हें रात में नींद भी नहीं आती थी।
सीता हर रोज सुबह उठकर घर के मंदिर में पूजा करती थीं और भगवान से प्रार्थना करती थीं कि वे उनके संकट को दूर करें। वे रामलाल को भी धैर्य रखने और भगवान पर विश्वास करने के लिए कहती थीं।
एक शाम, जब रामलाल दुकान बंद करके उदास मन से घर लौट रहे थे, तो रास्ते में उन्हें एक साधु मिले। साधु एक पेड़ के नीचे बैठे हुए थे और उनकी आँखों में एक अद्भुत तेज था। रामलाल ने उन्हें प्रणाम किया और उनके पास बैठ गए।
साधु ने रामलाल की उदासी को भाँप लिया और पूछा, “वत्स, क्या बात है? तुम इतने चिंतित क्यों हो?”
रामलाल ने अपनी सारी कहानी साधु को सुना दी। साधु ने ध्यान से उनकी बात सुनी और फिर मुस्कुराते हुए कहा, “दुख मत करो, वत्स। यह समय भी बीत जाएगा। भगवान अपने भक्तों की लाज रखते हैं। तुम बस उन पर विश्वास रखो और अपना कर्म करते रहो।”
साधु के वचनों में एक अद्भुत शांति और विश्वास था। रामलाल को थोड़ी हिम्मत मिली। उन्होंने साधु को प्रणाम किया और घर की ओर चल पड़े।
अगले दिन, रामलाल हमेशा की तरह दुकान पर गए, लेकिन उनका मन उदास था। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वे आगे क्या करेंगे। तभी उनकी दुकान पर एक बूढ़ा आदमी आया, जिसे रामलाल पहले कभी नहीं मिले थे।
बूढ़े आदमी ने कहा, “क्या आप रामलाल हैं?”
रामलाल ने हाँ में सिर हिलाया।
बूढ़े आदमी ने अपनी झोली से एक पोटली निकाली और उसे रामलाल को देते हुए कहा, “यह लो। यह तुम्हारे लिए है।”
रामलाल ने हैरान होकर पोटली खोली। उसमें उतनी ही रकम थी जितनी उनकी मंडी में खो गई थी। वे विश्वास नहीं कर पा रहे थे। उन्होंने बूढ़े आदमी से पूछा, “यह क्या है? आप कौन हैं?”
बूढ़े आदमी ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं तो बस एक सेवक हूँ। मुझे किसी ने भेजा है।” इतना कहकर वह भीड़ में गायब हो गया।
रामलाल भौंचक्के रह गए। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि यह सब क्या हो रहा है। उन्होंने तुरंत घर जाकर सीता को सारी बात बताई। सीता की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा, “देखो, मैंने कहा था ना कि भगवान अपने भक्तों की लाज रखते हैं। यह उन्हीं की कृपा है।”
मोहन भी यह सुनकर बहुत खुश हुआ। रामलाल और सीता ने मिलकर भगवान का धन्यवाद किया।
उस दिन के बाद, रामलाल ने फिर से अपनी दुकान में नया सामान भरा और उनका काम पहले की तरह चलने लगा। उन्हें यह दृढ़ विश्वास हो गया था कि जब इंसान पूरी तरह से असहाय महसूस करता है और सच्चे मन से भगवान को याद करता है, तो वे अवश्य उसकी मदद करते हैं।
कुछ महीने बाद, रामलाल को एक और मुश्किल का सामना करना पड़ा। इस बार, मोहन बीमार पड़ गया। उसे तेज बुखार था और उसकी हालत दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही थी। रत्नपुरी (जयपुर) के बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया गया, लेकिन किसी को भी बीमारी का ठीक से पता नहीं चल पाया। रामलाल और सीता बहुत चिंतित थे। उन्होंने मोहन की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी, लेकिन उसकी हालत में कोई सुधार नहीं हो रहा था।
एक रात, मोहन की हालत बहुत ज्यादा खराब हो गई। वह दर्द से कराह रहा था और उसकी साँसें उखड़ने लगी थीं। रामलाल और सीता उसके पास बैठे रो रहे थे। उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वे क्या करें।
सीता ने रोते हुए कहा, “अब तो भगवान ही हमारी लाज रखेंगे। हमने हर तरह के प्रयास कर लिए, लेकिन कुछ नहीं हुआ।”
रामलाल ने भी हार मान ली थी। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान से प्रार्थना की, “हे प्रभु, अब तो आप ही हमारी रक्षा करें। हमारे पास और कोई सहारा नहीं है।”
उसी रात, सीता को एक सपना आया। सपने में उन्हें एक दिव्य पुरुष दिखाई दिए, जिन्होंने उन्हें बताया कि मोहन को वृंदावन ले जाओ। वहाँ एक संत हैं, जो उसकी बीमारी ठीक कर सकते हैं।
सुबह उठकर सीता ने रामलाल को अपने सपने के बारे में बताया। रामलाल को पहले तो विश्वास नहीं हुआ, लेकिन मोहन की बिगड़ती हुई हालत देखकर उन्होंने वृंदावन जाने का फैसला किया।
वे तुरंत वृंदावन (उत्तर प्रदेश) के लिए रवाना हुए। वृंदावन पहुँचकर उन्होंने उस संत को ढूँढा, जिसका जिक्र सीता के सपने में हुआ था। संत एक शांत कुटिया में रहते थे और उनका चेहरा तेज और करुणा से भरा हुआ था।
रामलाल और सीता ने संत के चरणों में गिरकर मोहन की बीमारी के बारे में बताया। संत ने ध्यान से मोहन को देखा और फिर कुछ जड़ी-बूटियाँ मंगवाईं। उन्होंने उन जड़ी-बूटियों से एक दवा बनाई और मोहन को खिलाने के लिए कहा।
संत के आशीर्वाद और दवा के प्रभाव से धीरे-धीरे मोहन की तबीयत सुधरने लगी। कुछ दिनों में वह पूरी तरह से ठीक हो गया। रामलाल और सीता की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उन्होंने संत के चरणों में गिरकर उनका धन्यवाद किया।
संत ने मुस्कुराते हुए कहा, “यह सब भगवान की कृपा है। उन्होंने ही तुम्हारी लाज रखी।”
वृंदावन से लौटने के बाद, रामलाल और सीता का भगवान के प्रति विश्वास और भी दृढ़ हो गया। उन्हें यह समझ में आ गया था कि जब इंसान पूरी तरह से भगवान के शरणागत हो जाता है, तो वे अवश्य उसकी रक्षा करते हैं।
कुछ साल बीत गए। मोहन बड़ा हो गया और उसने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली। रामलाल ने अपनी दुकान का काम उसे सौंप दिया और अब वे और सीता धार्मिक कार्यों में अधिक समय बिताने लगे थे।
एक बार, मोहन को व्यापार के सिलसिले में दिल्ली (भारत की राजधानी) जाना पड़ा। वहाँ उसकी मुलाकात कुछ ऐसे लोगों से हुई जो गलत तरीके से पैसा कमाने में विश्वास रखते थे। उन्होंने मोहन को भी अपने साथ शामिल होने के लिए कहा। मोहन, जो बचपन से ही अपने माता-पिता से ईमानदारी और सच्चाई के पाठ पढ़ता आया था, उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया।
उन लोगों ने मोहन को नुकसान पहुँचाने की धमकी दी। मोहन डर गया, लेकिन उसने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उसने तुरंत अपने माता-पिता को फोन करके सारी बात बताई।
रामलाल और सीता चिंतित हो गए। उन्होंने मोहन को तुरंत वापस आने के लिए कहा। जब मोहन वापस आ गया, तो उन्होंने उसे समझाया कि जीवन में ईमानदारी और सच्चाई का मार्ग ही सबसे श्रेष्ठ होता है। भले ही उसमें कुछ परेशानियाँ आएं, लेकिन अंत में जीत सच्चाई की ही होती है।
कुछ दिनों बाद, दिल्ली पुलिस ने उन गलत काम करने वाले लोगों को पकड़ लिया। मोहन ने भगवान का धन्यवाद किया कि उन्होंने उसे गलत रास्ते पर जाने से बचाया।
एक बार, रामलाल और सीता तीर्थयात्रा पर निकले। वे अलग-अलग पवित्र स्थानों पर गए और भगवान का आशीर्वाद प्राप्त किया। अपनी यात्रा के दौरान, वे प्रयागराज (उत्तर प्रदेश) भी गए, जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का संगम होता है। वहाँ उन्होंने संगम में स्नान किया और दान-पुण्य किया।
प्रयागराज में उन्होंने एक ऐसे संत से मुलाकात की, जो बहुत ज्ञानी और अनुभवी थे। उन्होंने रामलाल और सीता को जीवन के कई गूढ़ रहस्य बताए और उन्हें भक्ति और समर्पण का महत्व समझाया। संत के वचनों से रामलाल और सीता को बहुत शांति मिली।
अपनी तीर्थयात्रा से लौटने के बाद, रामलाल और सीता का जीवन और भी अधिक शांत और संतुष्ट हो गया। उन्होंने अपने अनुभवों से सीखा था कि भगवान हमेशा अपने भक्तों के साथ होते हैं, भले ही परिस्थितियाँ कितनी भी विपरीत क्यों न हों।
एक दिन, रत्नपुरी (जयपुर) में भारी बाढ़ आ गई। चारों ओर पानी ही पानी भर गया और लोगों के घर डूब गए। रामलाल का घर भी पानी से घिर गया। उन्हें और सीता को छत पर शरण लेनी पड़ी।
वे बाढ़ के पानी को देख रहे थे और उन्हें अपनी जान का खतरा महसूस हो रहा था। उन्होंने भगवान से प्रार्थना की कि वे उनकी रक्षा करें।
कुछ घंटों बाद, बचाव दल नाव लेकर वहाँ पहुँचा और रामलाल और सीता को सुरक्षित स्थान पर ले गया। उन्होंने भगवान का लाख-लाख शुक्र अदा किया कि उन्होंने उनकी लाज रखी।
इस घटना के बाद, रामलाल और सीता ने अपना जीवन दूसरों की सेवा में समर्पित कर दिया। उन्होंने बाढ़ पीड़ितों की मदद की और उन्हें भोजन, वस्त्र और आश्रय उपलब्ध कराया। वे जानते थे कि भगवान ने उन्हें एक नया जीवन दिया है और अब उनका कर्तव्य है कि वे दूसरों की मदद करें।
मोहन भी अपने माता-पिता के इस नेक काम में उनका साथ देता था। उसने अपने व्यापार से होने वाली आय का एक हिस्सा गरीबों और जरूरतमंदों की मदद के लिए दान करना शुरू कर दिया था।
रामलाल, सीता और मोहन का परिवार रत्नपुरी (जयपुर) में एक प्रेरणास्रोत बन गया। लोग उनकी ईमानदारी, सच्चाई और भगवान के प्रति उनके अटूट विश्वास की प्रशंसा करते थे। उन्होंने यह साबित कर दिया था कि जब एक भक्त पूरी तरह से भगवान के शरणागत हो जाता है, तो भगवान हर मुश्किल में उसकी लाज रखते हैं।
उनकी कहानी दूर-दूर तक फैल गई और लोगों को यह याद दिलाया कि जीवन में चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आएं, हमें कभी भी भगवान पर से अपना विश्वास नहीं खोना चाहिए। वे हमेशा हमारी मदद के लिए तैयार रहते हैं, बस हमें सच्चे मन से उन्हें पुकारने की जरूरत है। “मेरी लाज रखना” का यही मुख्य संदेश है, जो रामलाल और सीता के जीवन में बार-बार सत्य साबित हुआ था।