
भीम की पराजय
महाभारत के युद्ध के बाद, पांडवों ने हस्तिनापुर में धर्मराज युधिष्ठिर के शासनकाल में एक सुखी जीवन व्यतीत किया। भीमसेन, अपनी असीम शक्ति और वीरता के लिए प्रसिद्ध, अब एक शांत और संयमित जीवन जी रहे थे। युद्ध के कष्टों ने उनके मन में एक गहरी शांति का संचार कर दिया था।
एक दिन, द्वारका से एक संदेश आया। श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को आमंत्रित किया था कि वे द्वारका आकर कुछ समय उनके साथ बिताएं। पांडवों ने प्रसन्नतापूर्वक इस निमंत्रण को स्वीकार किया और द्वारका के लिए प्रस्थान किया।
द्वारका में, श्रीकृष्ण ने पांडवों का स्वागत किया और उन्हें अपने महल में ठहराया। उन्होंने पांडवों के साथ कई दिनों तक भोजन किया, बातचीत की और सुखद समय व्यतीत किया। एक दिन, श्रीकृष्ण ने भीमसेन से कहा, “भीम, तुमने महाभारत के युद्ध में अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया है। तुमने अपने शत्रुओं को पराजित कर, धर्म की रक्षा की है। परंतु, क्या तुम जानते हो कि सच्ची वीरता केवल शारीरिक बल में नहीं निहित होती है?”
भीमसेन ने विनम्रतापूर्वक कहा, “हे कृष्ण, आप क्या कहना चाहते हैं?”
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “भीम, सच्ची वीरता तो अपने मन को वश में करने में निहित होती है। क्रोध, लोभ, मोह, इन सभी दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करना ही सच्ची वीरता है।”
भीमसेन ने सोचा, “मेरा मन तो हमेशा शांत रहता है। युद्ध के बाद से, मैंने कभी भी क्रोध या लोभ का अनुभव नहीं किया है।”
श्रीकृष्ण ने भीमसेन के मन की बात समझ ली। उन्होंने कहा, “भीम, मैं तुम्हें एक परीक्षा देने का प्रस्ताव करता हूँ। यदि तुम इस परीक्षा में सफल हुए, तो तुम सच्चे वीर कहलाओगे।”
भीमसेन ने उत्सुकता से पूछा, “हे कृष्ण, वह परीक्षा क्या है?”
श्रीकृष्ण ने कहा, “भीम, मैं तुम्हें एक ऐसे व्यक्ति से युद्ध करने के लिए कहूंगा, जो तुम्हारे समान बलवान नहीं है। परंतु, वह व्यक्ति तुम्हें एक ऐसी चुनौती देगा, जिसका सामना करना तुम्हारे लिए कठिन होगा।”
भीमसेन ने कहा, “मैं तैयार हूँ। मैं किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हूँ।”
श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा, “ठीक है, भीम। मैं तुम्हें एक ऐसे व्यक्ति से मिलाऊंगा, जो तुम्हें एक अद्वितीय परीक्षा देगा।”
अगले दिन, श्रीकृष्ण ने भीमसेन को एक शांत और सुंदर उद्यान में ले गए। उस उद्यान में, एक वृद्ध साधु ध्यान में लीन थे। साधु का शरीर दुर्बल था, और उनका चेहरा शांत और निर्विकार था।
श्रीकृष्ण ने भीमसेन से कहा, “भीम, यह साधु तुम्हारा प्रतिद्वंद्वी है। तुम उनसे युद्ध करो।”
भीमसेन ने साधु को देखा और हँस पड़े। उन्होंने सोचा, “यह वृद्ध साधु मुझसे कैसे युद्ध कर सकता है? मैं एक पल में ही उन्हें पराजित कर दूंगा।”
भीमसेन ने साधु के सामने खड़े होकर कहा, “हे साधु, मैं तुम्हें युद्ध के लिए चुनौती देता हूँ।”
साधु ने अपनी आँखें खोलीं और भीमसेन को शांति से देखा। उन्होंने कहा, “भीमसेन, मैं तुम्हारे साथ युद्ध नहीं करूंगा। मैं तुम्हें एक अन्य प्रकार की चुनौती देता हूँ।”
भीमसेन ने उत्सुकता से पूछा, “वह चुनौती क्या है?”
साधु ने कहा, “भीमसेन, मैं तुम्हें एक घंटे तक शांत रहने के लिए कहता हूँ। यदि तुम एक घंटे तक शांत रह सके, तो तुम विजयी हो जाओगे।”
भीमसेन ने हँसते हुए कहा, “एक घंटे तक शांत रहना? यह तो बहुत आसान है। मैं एक घंटे नहीं, एक दिन भी शांत रह सकता हूँ।”
साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, “ठीक है, भीमसेन। एक घंटे के बाद, मैं तुम्हें आवाज दूंगा। यदि तुम उस समय तक शांत रह सके, तो तुम विजयी हो जाओगे।”
भीमसेन ने साधु की बात मान ली और शांत होकर बैठ गए। उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं और मन ही मन में सोचने लगे कि वे कैसे इस परीक्षा में सफल होंगे।
परंतु, जैसे ही भीमसेन ने अपनी आँखें बंद कीं, उनके मन में अनेक विचार आने लगे। उन्होंने सोचा, “मैं इतना बलवान हूँ कि मैं किसी भी शत्रु को पराजित कर सकता हूँ। मैं इतना वीर हूँ कि मैं किसी भी चुनौती का सामना कर सकता हूँ।”
उन्होंने सोचा, “मैंने महाभारत के युद्ध में कितने ही शूरवीरों को मारा है। मैं कितना शक्तिशाली हूँ!”
उन्होंने सोचा, “मैंने अपने शत्रुओं को कितना दुख दिया है। क्या मैं सचमुच एक वीर हूँ?”
उन्होंने सोचा, “मैंने अपने जीवन में कितने ही पाप किए हैं। क्या मैं कभी भी मोक्ष प्राप्त कर पाऊंगा?”
भीमसेन के मन में अनेक विचार आते गए और जाते गए। वे शांत नहीं रह सके। उनके मन में क्रोध, लोभ, मोह, सभी दुर्गुण उठने लगे।
एक घंटे बाद, साधु ने भीमसेन को आवाज दी। भीमसेन ने अपनी आँखें खोलीं और साधु को देखा। उनके चेहरे पर पराजय का भाव स्पष्ट दिखाई दे रहा था।
साधु ने शांति से कहा, “भीमसेन, तुम पराजित हो गए।”
भीमसेन ने निराशा से कहा, “हाँ, साधु जी। मैं पराजित हो गया।”
साधु ने कहा, “भीमसेन, सच्ची वीरता तो अपने मन को वश में करने में निहित होती है। क्रोध, लोभ, मोह, इन सभी दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करना ही सच्ची वीरता है। तुम बलवान हो, वीर हो, परंतु तुम अपने मन को वश में नहीं कर सके।”
भीमसेन ने साधु की बातों को गहराई से समझा। उन्होंने महसूस किया कि सच्ची वीरता केवल शारीरिक बल में नहीं निहित होती है। सच्ची वीरता तो अपने मन को वश में करने में निहित होती है।
उन्होंने साधु से क्षमा माँगी और कहा, “साधु जी, आपने मुझे एक महान सबक सिखाया है। मैं अपने मन को वश में करने का प्रयास करूंगा।”
साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, “भीमसेन, यह परीक्षा तुम्हें सच्ची वीरता का मार्ग दिखाएगी। तुम अपने मन को वश में करो और सच्चे वीर बनो।”
भीमसेन ने साधु के आशीर्वाद से प्रण लिया कि वे अपने मन को वश में करेंगे और सच्चे वीर बनेंगे। उन्होंने द्वारका में कुछ और दिन श्रीकृष्ण के साथ बिताए और फिर हस्तिनापुर लौट आए।
हस्तिनापुर लौटने के बाद, भीमसेन ने अपने जीवन में एक नया अध्याय प्रारंभ किया। उन्होंने अपने मन को वश में करने का प्रयास किया। उन्होंने ध्यान और योग का अभ्यास किया। उन्होंने अपने क्रोध, लोभ, मोह पर विजय प्राप्त करने का प्रयास किया।
धीरे-धीरे, भीमसेन में एक शांति और संयम का भाव आने लगा।