
कामदा एकादशी: एक दिव्य मिलन
राजस्थान की स्वर्ण नगरी, कोटा, अपनी ऐतिहासिक धरोहर और शैक्षणिक संस्थानों के लिए जानी जाती है। अप्रैल की गुनगुनी सुबह में, जब सूर्य की पहली किरणें चंबल नदी के शांत जल पर नृत्य कर रही थीं, शहर एक नई ऊर्जा से भर उठा था। हवा में वसंत की मादक सुगंध घुली हुई थी और पक्षियों का मधुर कलरव वातावरण को और भी जीवंत बना रहा था।
इसी शांत और सुरम्य वातावरण में, शहर के बाहरी इलाके में स्थित एक प्राचीन शिव मंदिर में भक्तों की भीड़ उमड़ रही थी। आज कामदा एकादशी थी, और श्रद्धालु भगवान विष्णु की आराधना के लिए दूर-दूर से यहाँ एकत्रित हुए थे। मंदिर की घंटियों की मधुर ध्वनि और भक्तों के भक्तिमय स्वर पूरे क्षेत्र में गूंज रहे थे।
मंदिर, जो सदियों पुराना बताया जाता था, अपनी भव्यता और शांत वातावरण के लिए प्रसिद्ध था। इसकी दीवारों पर उकेरी गई जटिल नक्काशी प्राचीन शिल्प कला का अद्भुत उदाहरण थी। मंदिर के चारों ओर हरे-भरे वृक्षों की छाया थी, जो भक्तों को धूप से राहत प्रदान करती थी और एक शांत वातावरण बनाए रखती थी। मंदिर के प्रांगण में एक विशाल बरगद का पेड़ था, जिसकी घनी शाखाएँ दूर-दूर तक फैली हुई थीं, मानो वह सदियों से इस स्थान का मौन साक्षी हो।
आज कामदा एकादशी का विशेष महत्व था। माना जाता है कि इस दिन व्रत रखने और भगवान विष्णु की पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और पापों का नाश होता है। यही कारण था कि सुबह से ही भक्तों का तांता लगा हुआ था। पुरुष, महिलाएं और बच्चे, सभी पारंपरिक वस्त्रों में सजे हुए, श्रद्धा और भक्ति के भाव से मंदिर की ओर खिंचे चले आ रहे थे।
मंदिर के मुख्य द्वार पर लंबी कतार लगी हुई थी। भक्त धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे, उनके हाथों में फूल, फल, और प्रसाद की थालियाँ थीं। उनके चेहरे पर आस्था और धैर्य का भाव स्पष्ट रूप से झलक रहा था। कुछ भक्त तो नंगे पैर ही दूर-दूर से चलकर आए थे, उनकी भक्ति की गहराई को दर्शाते हुए।
मंदिर के अंदर, गर्भगृह में भगवान विष्णु की सुंदर मूर्ति स्थापित थी। पीले वस्त्रों से सजे, हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए, भगवान की दिव्य छवि भक्तों के मन को शांति और आनंद से भर रही थी। पुजारी मंत्रोच्चारण कर रहे थे और भक्तगण अपनी श्रद्धा अनुसार भगवान को फूल और प्रसाद अर्पित कर रहे थे। धूप और अगरबत्ती की सुगंध पूरे गर्भगृह में व्याप्त थी, जिससे वातावरण और भी पवित्र और भक्तिमय लग रहा था।
मंदिर के बाहर, प्रांगण में भी भक्तों की भारी भीड़ थी। कुछ लोग बैठकर भगवान के भजन गा रहे थे, उनकी आवाज में भक्ति और समर्पण का भाव था। कुछ लोग मंदिर के चारों ओर परिक्रमा कर रहे थे, अपनी मनोकामनाओं को मन में दोहराते हुए। बच्चों की किलकारियाँ और बुजुर्गों के आशीर्वाद की फुसफुसाहटें हवा में घुली हुई थीं, जो एक जीवंत और सामुदायिक माहौल बना रही थीं।
इस भीड़ में, एक मध्यम आयु की महिला, जिनका नाम जानकी था, भी खड़ी थीं। उनके चेहरे पर चिंता और व्याकुलता के भाव थे। वे पिछले कई वर्षों से संतान प्राप्ति के लिए प्रयास कर रही थीं, लेकिन उनकी यह इच्छा अभी तक पूरी नहीं हो पाई थी। आज कामदा एकादशी के दिन, वे अपनी इस मनोकामना को लेकर भगवान विष्णु के दर्शन करने आई थीं। उनकी आँखों में उम्मीद और प्रार्थना का भाव था।
जानकी ने धीरे-धीरे कतार में आगे बढ़ते हुए गर्भगृह में प्रवेश किया। उन्होंने भगवान विष्णु की मूर्ति के सामने हाथ जोड़े और अपनी आँखों में आँसू भरकर प्रार्थना की। उन्होंने अपने मन की पीड़ा और अपनी गहरी इच्छा को भगवान के सामने व्यक्त किया। उन्हें विश्वास था कि आज के पवित्र दिन उनकी प्रार्थना अवश्य सुनी जाएगी।
मंदिर के पुजारी ने जानकी को आशीर्वाद दिया और उन्हें प्रसाद के रूप में तुलसी दल और चरणामृत दिया। जानकी ने श्रद्धापूर्वक उसे ग्रहण किया और अपने माथे पर लगाया। उन्हें एक क्षण के लिए शांति का अनुभव हुआ, मानो भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली हो।
मंदिर के प्रांगण में, एक बूढ़ा व्यक्ति, जिनका नाम पंडित रामनाथ था, एक पेड़ के नीचे बैठकर धार्मिक कथाएँ सुना रहे थे। उनके चारों ओर भक्तों की एक छोटी सी मंडली बैठी हुई थी, जो ध्यान से उनकी बातों को सुन रही थी। पंडित रामनाथ वर्षों से इस मंदिर से जुड़े हुए थे और उन्हें धर्म और शास्त्रों का गहरा ज्ञान था।
आज वे कामदा एकादशी के महत्व और उससे जुड़ी पौराणिक कथाओं का वर्णन कर रहे थे। उन्होंने बताया कि किस प्रकार प्राचीन काल में राजा दिलीप ने इसी व्रत के प्रभाव से अपनी संतान प्राप्ति की कामना पूरी की थी। उनकी कथाएँ भक्तों के मन में श्रद्धा और विश्वास को और भी मजबूत कर रही थीं।
पंडित रामनाथ ने कहा, “कामदा एकादशी का व्रत अत्यंत फलदायी है। जो भी भक्त इस दिन सच्चे मन से भगवान विष्णु की आराधना करता है, उसकी सभी इच्छाएं पूरी होती हैं। यह व्रत न केवल सांसारिक सुखों को प्रदान करता है, बल्कि आत्मा को भी शुद्ध करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।”
उनकी बातों को सुनकर भक्तों के मन में और भी अधिक उत्साह और भक्ति का संचार हुआ। उन्होंने भगवान विष्णु के नामों का जाप करना शुरू कर दिया, उनकी आवाजें धीरे-धीरे पूरे मंदिर परिसर में गूंजने लगीं।
मंदिर के बाहर, कुछ स्वयंसेवक भक्तों की सेवा में लगे हुए थे। वे उन्हें पानी पिला रहे थे, बैठने के लिए स्थान दे रहे थे और कतार को व्यवस्थित रखने में मदद कर रहे थे। उनकी सेवा भावना और समर्पण देखकर अन्य भक्तों को भी प्रेरणा मिल रही थी।
जैसे-जैसे दिन चढ़ता गया, भक्तों की भीड़ और बढ़ती गई। दूर-दराज के गांवों और कस्बों से भी लोग ट्रैक्टर-ट्रॉलियों और बसों में भरकर मंदिर पहुँच रहे थे। पूरा क्षेत्र भक्ति के रंग में रंगा हुआ था।
मंदिर के पास ही एक छोटा सा मेला भी लगा हुआ था। यहाँ पर बच्चों के लिए खिलौने, महिलाओं के लिए श्रृंगार का सामान और पूजा सामग्री की दुकानें सजी हुई थीं। भक्त दर्शन करने के बाद यहाँ थोड़ी देर रुककर खरीदारी भी कर रहे थे। चाट और पकौड़ों की खुशबू हवा में तैर रही थी, जिससे मेले का माहौल और भी जीवंत और खुशनुमा लग रहा था।
शाम होने को आई थी, और मंदिर में आरती की तैयारी शुरू हो गई थी। पुजारी ने शंख बजाया और भक्तों को आरती के लिए एकत्रित होने का आह्वान किया। सभी भक्तगण हाथ जोड़कर भगवान विष्णु के सामने खड़े हो गए। आरती के मधुर स्वर और धूप-दीप की रोशनी ने पूरे वातावरण को एक दिव्य आभा से भर दिया।
जानकी भी आरती में शामिल थीं। उनकी आँखों में अब चिंता की जगह शांति और संतोष का भाव था। उन्हें ऐसा लग रहा था मानो भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली हो और उन्हें जल्द ही शुभ समाचार मिलेगा।
आरती समाप्त होने के बाद, भक्तों को प्रसाद वितरित किया गया। जानकी ने भी श्रद्धापूर्वक प्रसाद ग्रहण किया और उसे अपने घर ले जाने के लिए संभाल कर रख लिया।
जब जानकी मंदिर से बाहर निकलीं, तो उन्हें एक अद्भुत शांति का अनुभव हो रहा था। उनके मन का बोझ हल्का हो गया था और उन्हें भविष्य के प्रति एक नई उम्मीद जग गई थी। उन्हें विश्वास था कि भगवान विष्णु की कृपा से उनकी संतान प्राप्ति की इच्छा अवश्य पूरी होगी।
मंदिर के बाहर, भक्तों की भीड़ अब धीरे-धीरे कम हो रही थी। लोग अपने घरों की ओर लौट रहे थे, उनके मन में भगवान के दर्शन का आनंद और कामदा एकादशी के व्रत का पुण्य संचित था।
पंडित रामनाथ अभी भी पेड़ के नीचे बैठे हुए थे और कुछ अंतिम भक्तों को आशीर्वाद दे रहे थे। उन्होंने जानकी को देखा और उनके चेहरे पर आई शांति को महसूस किया। उन्होंने मुस्कुराकर जानकी को आशीर्वाद दिया और कहा, “माँ, भगवान सबकी सुनते हैं। श्रद्धा और विश्वास रखो, तुम्हारी मनोकामना अवश्य पूरी होगी।”
जानकी ने पंडित रामनाथ को प्रणाम किया और कृतज्ञतापूर्वक अपने घर की ओर चल पड़ीं। उनके हृदय में आज एक अटूट विश्वास और गहरी शांति का अनुभव हो रहा था। कामदा एकादशी का यह दिन उनके जीवन में एक नई उम्मीद की किरण लेकर आया था।
मंदिर अब धीरे-धीरे शांत हो रहा था। पुजारी और स्वयंसेवक साफ-सफाई में जुट गए थे। बरगद का विशाल पेड़ अभी भी मौन खड़ा था, मानो आज के दिन की सभी प्रार्थनाओं और भावनाओं को अपने भीतर समेटे हुए हो। मंदिर की घंटियों की आखिरी ध्वनि हवा में तैर गई और फिर सब कुछ शांत हो गया।
लेकिन भक्तों के दिलों में भगवान विष्णु की भक्ति और कामदा एकादशी के व्रत का महत्व हमेशा बना रहेगा। यह दिन उन्हें याद दिलाता रहेगा कि सच्ची श्रद्धा और विश्वास से हर मनोकामना पूरी हो सकती है और जीवन में शांति और सुख प्राप्त किया जा सकता है। यह प्राचीन शिव मंदिर, जो आज भगवान विष्णु के भक्तों से भरा हुआ था, सदियों से इसी आस्था और भक्ति का केंद्र बना रहेगा।
मंदिर के प्रांगण में, एक मध्यम आयु की महिला, जिनका नाम राधिका था, बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ भगवान विष्णु की मूर्ति के सामने हाथ जोड़े खड़ी थीं। उनकी आँखों में एक गहरी उदासी और मन में एक अटूट विश्वास का भाव था। राधिका पिछले कई वर्षों से संतान सुख से वंचित थीं और कामदा एकादशी का व्रत रखकर वे भगवान विष्णु से अपनी मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना कर रही थीं।
राधिका एक सरल और धार्मिक महिला थीं। उनके पति, रमेश, एक छोटे से कारखाने में काम करते थे और दोनों मिलकर बड़ी मुश्किल से अपना जीवन यापन करते थे। संतान न होने का दुख राधिका के मन को हर पल कचोटता रहता था। समाज के ताने-बाने और रिश्तेदारों की सहानुभूति भरी निगाहें उन्हें और भी पीड़ा देती थीं।
उन्होंने कई वैद्य और डॉक्टरों से सलाह ली थी, अनगिनत पूजा-पाठ और मन्नतें मानी थीं, लेकिन उनकी गोद अब तक सूनी थी। इस वर्ष, उन्होंने कामदा एकादशी का व्रत पूरे विधि-विधान से करने का संकल्प लिया था। उन्हें विश्वास था कि भगवान विष्णु उनकी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे और उन्हें संतान का सुख प्रदान करेंगे।
व्रत के दिन, राधिका सुबह ब्रह्म मुहूर्त में उठीं और नित्य कर्मों से निवृत्त होकर मंदिर गईं। उन्होंने भगवान विष्णु की मूर्ति को गंगाजल से स्नान कराया, चंदन और पुष्प अर्पित किए और धूप-दीप जलाकर उनकी स्तुति की। उन्होंने पूरे दिन निराहार रहकर भगवान का ध्यान किया और शाम को मंदिर में आयोजित विशेष पूजा में भी भाग लिया।
पूजा के बाद, जब सभी भक्त प्रसाद ग्रहण कर रहे थे, राधिका एक कोने में बैठी अपनी आँखों में भरे आँसुओं को रोकने की कोशिश कर रही थीं। उन्हें लग रहा था कि उनकी प्रार्थना शायद अनसुनी रह गई है। तभी, एक वृद्ध साधु, जिनकी तेजस्वी आँखें और शांत स्वभाव सभी को आकर्षित कर रहे थे, उनकी ओर बढ़े।
साधु ने राधिका के कंधे पर हाथ रखा और मधुर वाणी में कहा, “बेटी, क्यों उदास हो? भगवान सबकी सुनते हैं, बस थोड़ा धैर्य रखो।”
राधिका ने अपनी नम आँखों से साधु की ओर देखा और अपनी व्यथा सुनानी चाही, लेकिन गला रुंध गया।
साधु ने मुस्कुराते हुए कहा, “मैंने तुम्हारी आँखों में छिपी पीड़ा पढ़ ली है। कामदा एकादशी का व्रत निष्फल नहीं जाता। सच्ची श्रद्धा और भक्ति से की गई प्रार्थना अवश्य स्वीकार होती है।”
उन्होंने आगे कहा, “बेटी, जीवन में सुख और दुख का चक्र चलता रहता है। तुम्हें धैर्य और विश्वास बनाए रखना होगा। भगवान तुम्हारी परीक्षा ले रहे हैं, और इस परीक्षा में वही सफल होते हैं जो अपने विश्वास को दृढ़ रखते हैं।”
साधु के वचनों ने राधिका के मन में एक नई उम्मीद जगाई। उन्हें लगा जैसे किसी दिव्य शक्ति ने उन्हें सहारा दिया हो। उन्होंने साधु को प्रणाम किया और उनके आशीर्वाद के लिए धन्यवाद दिया।
व्रत के अगले दिन, द्वादशी को राधिका ने विधिपूर्वक व्रत का पारण किया और गरीबों को दान दिया। उनके मन में एक अद्भुत शांति और संतोष का भाव था। उन्हें अब विश्वास हो गया था कि भगवान उनकी प्रार्थना अवश्य सुनेंगे।
समय बीतता गया। राधिका और रमेश अपने दैनिक जीवन में व्यस्त हो गए, लेकिन राधिका के मन में कामदा एकादशी के व्रत और साधु के वचनों की स्मृति हमेशा बनी रही। उन्होंने कभी भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ा और भगवान विष्णु पर अपना अटूट विश्वास बनाए रखा।
एक वर्ष बीत गया। अगले वर्ष, जब कामदा एकादशी का दिन नजदीक आया, राधिका के जीवन में एक अद्भुत परिवर्तन आया। उन्हें गर्भधारण हुआ। यह खबर सुनकर राधिका और रमेश की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उनकी वर्षों की तपस्या और प्रार्थना आखिरकार रंग लाई थी।
नौ महीने बाद, राधिका ने एक स्वस्थ और सुंदर पुत्र को जन्म दिया। उनके घर में खुशियों की किलकारियाँ गूंज उठीं। राधिका और रमेश ने अपने पुत्र का नाम ‘केशव’ रखा, जो भगवान विष्णु का ही एक नाम है।
कामदा एकादशी के दिन, राधिका अपने पुत्र केशव को गोद में लिए उसी शिव मंदिर में गईं, जहाँ उन्होंने पिछले वर्ष व्रत रखा था। उनकी आँखों में कृतज्ञता के आँसू थे और हृदय भगवान विष्णु के प्रति अपार श्रद्धा से भरा हुआ था।
मंदिर में वही वृद्ध साधु उन्हें फिर से दिखाई दिए। राधिका ने साधु के चरणों में गिरकर उन्हें प्रणाम किया और अपने पुत्र केशव के बारे में बताया।
साधु ने मुस्कुराते हुए केशव के सिर पर हाथ फेरा और कहा, “बेटी, मैंने तुमसे कहा था न कि सच्ची श्रद्धा कभी व्यर्थ नहीं जाती। भगवान ने तुम्हारी प्रार्थना सुन ली और तुम्हें यह अनमोल उपहार दिया।”
राधिका ने साधु को धन्यवाद दिया और उन्हें भोजन कराया। उस दिन, उन्होंने गरीबों को भी दान दिया और भगवान विष्णु के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त की।
कामदा एकादशी का वह दिन राधिका के जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दिन बन गया। इस व्रत ने न केवल उनकी मनोकामना पूरी की, बल्कि उन्हें यह भी सिखाया कि जीवन में धैर्य, विश्वास और सच्ची श्रद्धा का कितना महत्व है।
धीरे-धीरे केशव बड़ा होने लगा। वह एक सुशील, बुद्धिमान और धार्मिक बालक था। राधिका और रमेश ने उसे अच्छे संस्कार दिए और भगवान विष्णु की भक्ति करना सिखाया। केशव भी अपनी माँ की श्रद्धा और विश्वास को देखकर बड़ा हुआ।
कई वर्ष बीत गए। केशव अब एक युवा पुरुष बन चुका था। उसने अपनी शिक्षा पूरी की और एक अच्छी नौकरी प्राप्त की। राधिका और रमेश अब अपने पोते-पोतियों के साथ खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे थे।
हर वर्ष कामदा एकादशी के दिन, राधिका पूरे परिवार के साथ उसी शिव मंदिर में जाती थीं और भगवान विष्णु की आराधना करती थीं। वे उस वृद्ध साधु को हमेशा याद रखती थीं, जिन्होंने उन्हें कठिन समय में धैर्य और विश्वास का महत्व सिखाया था।
कामदा एकादशी का व्रत न केवल संतान प्राप्ति की कामना करने वालों के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह सभी भक्तों को यह संदेश देता है कि सच्ची भक्ति और श्रद्धा से हर मनोकामना पूरी हो सकती है। यह व्रत हमें यह भी सिखाता है कि जीवन में आने वाली कठिनाइयों का सामना धैर्य और विश्वास के साथ करना चाहिए।
कोटा शहर में, कामदा एकादशी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। मंदिरों में विशेष पूजा-अर्चना होती है, भजन-कीर्तन आयोजित किए जाते हैं और भक्त पूरे दिन निराहार रहकर भगवान विष्णु की स्तुति करते हैं। इस दिन दान-पुण्य का भी विशेष महत्व है।
राधिका की कहानी कोटा शहर के कई लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गई। उनकी अटूट श्रद्धा और धैर्य ने कई निराश लोगों को नई उम्मीद दी। कामदा एकादशी का व्रत उनके लिए केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं था, बल्कि यह उनके जीवन में एक दिव्य मिलन का प्रतीक था, जहाँ उनकी सच्ची प्रार्थना भगवान विष्णु तक पहुँची और उन्हें अनमोल सुख प्रदान किया।
आज भी, जब कोटा शहर में कामदा एकादशी का पर्व आता है, राधिका अपनी बहू और पोते-पोतियों के साथ उसी मंदिर में जाती हैं। उनकी आँखों में वही पुरानी श्रद्धा और हृदय में वही अपार कृतज्ञता का भाव होता है। वे जानती हैं कि भगवान विष्णु हमेशा उनके साथ हैं और उनकी हर मनोकामना पूरी करते हैं, बस आवश्यकता है तो सच्ची भक्ति और अटूट विश्वास की।
कामदा एकादशी का यह दिव्य पर्व हर वर्ष आता है और भक्तों को भगवान विष्णु की कृपा और महिमा का स्मरण कराता है। यह व्रत हमें सिखाता है कि जीवन में चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ आएं, यदि हमारा विश्वास दृढ़ है और हमारी भक्ति सच्ची है, तो भगवान अवश्य हमारी सहायता करते हैं और हमारी मनोकामनाएं पूरी करते हैं। राधिका की कहानी इसी अटूट विश्वास और सच्ची भक्ति का एक जीवंत उदाहरण है।