
अनमोल विनती: उज्जैन से श्याम की ओर
मध्य प्रदेश की प्राचीन और पवित्र नगरी, उज्जैन, जो कभी अवंतिका के गौरवशाली नाम से जानी जाती थी, इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में अपनी अमिट छाप छोड़ती है। यह नगरी न केवल अपनी ऐतिहासिक धरोहर के लिए विख्यात है, बल्कि यह भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक, महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दिव्य तेज से भी जगमगाती है। क्षिप्रा नदी के पावन तट पर शांत और गंभीर रूप से बसी हुई यह नगरी सदियों से अनगिनत भक्तों, जिज्ञासु यात्रियों और आध्यात्मिक साधकों को अपनी ओर आकर्षित करती रही है। इसकी हवाओं में रची-बसी प्राचीनता और कण-कण में समाई आध्यात्मिकता एक ऐसा अनूठा वातावरण सृजित करती है जो मन को शांति और आत्मा को तृप्ति प्रदान करता है।
उज्जैन की गलियाँ, जो कभी राजा विक्रमादित्य और कालिदास जैसे महान विभूतियों के पदचिह्नों से पवित्र हुई थीं, आज भी अपनी पुरानी कहानियों को मौन रूप से बयां करती हैं। यहाँ के प्राचीन मंदिर, भव्य महल और शांत घाट एक ऐसे अतीत की गवाही देते हैं जो वैभव और ज्ञान से परिपूर्ण था। महाकालेश्वर मंदिर का शिखर आकाश को छूता हुआ प्रतीत होता है, और इसकी दिव्य आरती में गूंजते हुए मंत्र भक्तों के हृदय में एक गहरी श्रद्धा का संचार करते हैं। क्षिप्रा नदी, जो इस नगरी के जीवनदायिनी है, अपने शीतल जल से न केवल भूमि को सिंचित करती है, बल्कि यहाँ आने वाले हर व्यक्ति के मन को भी पवित्र करती है।
इसी आध्यात्मिक नगरी के शांत और सुरम्य उपनगर में, आधुनिक जीवन की भागदौड़ से कुछ दूर, एक युवा महिला, अंजलि, अपने छोटे से स्नेहिल परिवार के साथ एक साधारण जीवन व्यतीत कर रही थी। उसकी उम्र लगभग तीस वर्ष थी, जो जीवन के उस पड़ाव को दर्शाती है जहाँ व्यक्ति अपने सपनों को साकार करने और पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने में व्यस्त रहता है। अंजलि के चेहरे पर एक गहरी आस्था और अटूट समर्पण का भाव स्थायी रूप से झलकता था, जैसे किसी शांत सरोवर में स्थिर जल की गहराई। उसकी आँखें, जो अक्सर भगवान के ध्यान में खोई रहती थीं, एक विशेष प्रकार की चमक और शांति लिए हुए थीं, जो उसके आंतरिक विश्वास की शक्ति को दर्शाती थीं।
अंजलि का दिनचर्या अन्य गृहणियों की तरह ही था – सुबह जल्दी उठकर परिवार की देखभाल करना, घर के कामकाज निपटाना, और अपने प्रियजनों की जरूरतों का ध्यान रखना। लेकिन इन सभी सांसारिक कार्यों के बीच, उसके हृदय में भगवान के प्रति एक अविचल भक्ति का प्रवाह निरंतर बहता रहता था। वह हर कार्य को एक प्रकार की पूजा मानती थी, और अपने हर विचार और कर्म को भगवान को समर्पित करने का प्रयास करती थी।
अंजलि का परिवार छोटा था, जिसमें उसके पति, जो एक स्थानीय विद्यालय में शिक्षक थे, और उनके दो छोटे बच्चे शामिल थे। उनका जीवन सादगी और संतोष से भरा हुआ था। भौतिक सुख-सुविधाओं की अधिकता न होने पर भी, उनके घर में हमेशा प्रेम, सद्भाव और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का वातावरण बना रहता था। अंजलि ने अपने बच्चों को भी बचपन से ही धार्मिक और नैतिक मूल्यों की शिक्षा दी थी, और उन्हें भगवान की महिमा और भक्ति के महत्व के बारे में बताया था।
अंजलि का भगवान के प्रति यह गहरा समर्पण किसी बाहरी प्रभाव या दिखावे का परिणाम नहीं था, बल्कि यह उसके अंतर्मन की एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी। वह बचपन से ही धार्मिक कहानियों को सुनने और भगवान के भजनों को गाने में रुचि रखती थी। जैसे-जैसे वह बड़ी हुई, उसका विश्वास और भी दृढ़ होता गया। उसने विभिन्न धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन किया था और संतों और महात्माओं के प्रवचनों को सुना था, जिससे उसकी आध्यात्मिक समझ और भी गहरी हो गई थी।
अंजलि के लिए, भगवान केवल एक पूजनीय शक्ति नहीं थे, बल्कि वे उसके जीवन के हर पहलू में मौजूद थे – उसके सुख में साथी, उसके दुख में सहारा, और उसके हर निर्णय में मार्गदर्शक। वह उनसे खुलकर बातें करती थी, अपनी खुशियाँ और परेशानियाँ साझा करती थी, और हमेशा उनकी कृपा और आशीर्वाद की कामना करती थी। उसका यह अटूट विश्वास ही उसकी सबसे बड़ी शक्ति थी, जो उसे जीवन की हर चुनौती का सामना करने की प्रेरणा देता था।
उज्जैन जैसे पवित्र शहर में रहने का भी अंजलि के आध्यात्मिक जीवन पर गहरा प्रभाव था। यहाँ का धार्मिक वातावरण, मंदिरों की घंटियाँ, और भक्तों की भीड़ उसे हमेशा एक दिव्य उपस्थिति का एहसास कराती थी। वह अक्सर महाकालेश्वर मंदिर जाती थी और भगवान शिव के चरणों में अपनी प्रार्थनाएँ अर्पित करती थी। क्षिप्रा नदी के किनारे बैठकर वह घंटों ध्यान करती थी, और प्रकृति की शांति में उसे भगवान की उपस्थिति का अनुभव होता था।
अंजलि की भक्ति में किसी प्रकार का आडंबर या दिखावा नहीं था। वह चुपचाप और निस्वार्थ भाव से भगवान की आराधना करती थी। उसके हृदय में केवल प्रेम और समर्पण का भाव था, और वह किसी भी प्रकार के फल या पुरस्कार की अपेक्षा किए बिना भक्ति के मार्ग पर चलती रहती थी। उसका मानना था कि सच्ची भक्ति तो वह है जो बिना किसी स्वार्थ के की जाए, केवल भगवान के प्रेम और उनकी महिमा के लिए।
अंजलि के जीवन में कई ऐसे अवसर आए जब उसे अपनी आस्था की परीक्षा देनी पड़ी। आर्थिक तंगी, पारिवारिक समस्याएँ और स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियाँ उसके सामने आईं, लेकिन हर बार उसने अपने अटूट विश्वास और धैर्य के बल पर उन मुश्किलों का सामना किया। उसका मानना था कि भगवान कभी भी अपने भक्तों को अकेला नहीं छोड़ते, और हर कठिनाई के पीछे कोई न कोई उद्देश्य जरूर छिपा होता है।
अंजलि की कहानी उज्जैन के उस शांत उपनगर में रहने वाले अन्य लोगों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत थी। उसके चेहरे की शांति, उसके व्यवहार की मधुरता और उसकी अटूट आस्था लोगों को आकर्षित करती थी। कई महिलाएँ उससे अपनी समस्याओं और चिंताओं के बारे में सलाह लेने आती थीं, और अंजलि हमेशा उन्हें धैर्य और विश्वास के साथ जीवन का सामना करने की प्रेरणा देती थी।
अंजलि का जीवन एक जीती-जागती मिसाल थी कि कैसे एक साधारण व्यक्ति भी गहरी आस्था और समर्पण के बल पर अपने जीवन को सार्थक और आनंदमय बना सकता है। उसकी कहानी हमें यह सिखाती है कि भगवान केवल मंदिरों और तीर्थस्थलों में ही नहीं बसते, बल्कि वे हर उस हृदय में विराजमान होते हैं जो उन्हें सच्चे प्रेम और भक्ति से याद करता है। उज्जैन की इस शांत उपनगरीय महिला की आस्था और समर्पण की यह गाथा आज भी अनकही ही सही, लेकिन उसके जीवन के हर पहलू में स्पष्ट रूप से झलकती है, एक ऐसी ज्योति की तरह जो अंधकार में भी राह दिखाती है। उसका अटूट विश्वास और गहरा समर्पण उस अनमोल विनती की नींव बनता है, जो उसके हृदय से उठकर भगवान कृष्ण के चरणों तक पहुँचती है – “कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे।” यह केवल एक भजन की पंक्ति नहीं, बल्कि अंजलि के जीवन का सार है, उसकी आत्मा की पुकार है, जो हमेशा उसके आराध्य के साथ एक अटूट बंधन बनाए रखना चाहती है।
अंजलि का जीवन भगवान कृष्ण की भक्ति में डूबा हुआ था। बचपन से ही उसे कृष्ण की कहानियाँ सुनना, उनके भजन गाना और उनकी पूजा करना बहुत प्रिय था। उसकी शादी एक साधारण परिवार में हुई थी, और उसका पति, विकास, एक छोटी सी दुकान चलाता था। उनका एक प्यारा सा बेटा था, आयुष, जो अभी स्कूल जाता था।
अंजलि का जीवन सामान्य रूप से चल रहा था, लेकिन पिछले कुछ महीनों से उसके मन में एक अजीब सी बेचैनी रहने लगी थी। उसे ऐसा लगता था जैसे उसके और भगवान कृष्ण के बीच कोई दूरी आ गई हो। वह पहले की तरह भक्ति में मन नहीं लगा पा रही थी और उसे डर लगने लगा था कि कहीं भगवान उससे रूठ न जाएं।
अंजलि अक्सर अकेले में बैठकर रोती और भगवान से प्रार्थना करती कि वे कभी उससे नाराज न हों। उसे संजय मित्तल का एक भजन बहुत पसंद था – “कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे”। इस भजन के बोल उसके हृदय की गहराईयों को छूते थे और उसे लगता था कि यह उसकी अपनी ही विनती है।
एक दिन, अंजलि ने विकास से अपनी इस बेचैनी के बारे में बात की। विकास एक समझदार और धार्मिक व्यक्ति था। उसने अंजलि को सलाह दी कि उसे एक बार खाटू श्याम बाबा के दर्शन करने जाना चाहिए। उसने सुना था कि बाबा अपने भक्तों की हर मनोकामना पूरी करते हैं और उनके मन की बात भी जान लेते हैं।
अंजलि को विकास की बात अच्छी लगी। उसे लगा कि शायद खाटू जाकर उसे शांति मिलेगी और उसका भगवान के साथ फिर से जुड़ाव महसूस होगा। उन्होंने अपनी पड़ोसी, रेखा आंटी, से आयुष की देखभाल करने का अनुरोध किया और खाटू धाम के लिए रवाना हो गए।
उज्जैन से खाटू की यात्रा लंबी थी, लेकिन अंजलि के मन में एक गहरी उत्सुकता और उम्मीद थी। उसे विश्वास था कि बाबा के दरबार में पहुँचकर उसकी सारी चिंताएँ दूर हो जाएंगी।
जब वे खाटू पहुँचे, तो वहाँ भक्तों की भारी भीड़ थी। अंजलि और विकास भी उस भीड़ में शामिल हो गए और धीरे-धीरे मंदिर की ओर बढ़ने लगे। मंदिर का वातावरण भक्ति और श्रद्धा से ओतप्रोत था। चारों तरफ “जय श्री श्याम” के जयकारे गूंज रहे थे।
बाबा श्याम के दिव्य दर्शन करते ही अंजलि की आँखों से आँसू बहने लगे। उसे ऐसा लगा जैसे उसके सामने स्वयं भगवान कृष्ण खड़े हों। उसने हाथ जोड़कर बाबा से अपनी विनती की। उसने कहा कि वह हमेशा उनकी भक्त रहना चाहती है और कभी भी उनसे दूर नहीं होना चाहती। उसने उस भजन के बोलों को अपने मन में दोहराया – “कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे”।
मंदिर में कुछ घंटे बिताने के बाद अंजलि को एक अद्भुत शांति का अनुभव हुआ। उसे ऐसा लगा जैसे उसके मन की सारी उदासी और बेचैनी दूर हो गई हो। विकास भी उस भक्तिमय माहौल से बहुत प्रभावित हुआ।
जब वे वापस उज्जैन लौट रहे थे, तो अंजलि के चेहरे पर एक नई चमक थी। उसे अब यह विश्वास हो गया था कि भगवान कभी भी अपने सच्चे भक्तों से नहीं रूठते।
उज्जैन पहुँचकर अंजलि ने फिर से अपनी पूजा और भक्ति में मन लगाया। अब उसे पहले से भी ज्यादा आनंद आने लगा था। उसे ऐसा महसूस होता था जैसे भगवान कृष्ण हमेशा उसके साथ हैं।
कुछ दिनों के बाद, अंजलि को एक सपना आया। उसने देखा कि भगवान कृष्ण एक सुंदर बालक के रूप में उसके घर आए हैं और उसे आशीर्वाद दे रहे हैं। सपने में उन्होंने वही भजन गाया – “कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे”।
सुबह उठकर अंजलि ने विकास को अपने सपने के बारे में बताया। विकास ने कहा कि यह जरूर बाबा श्याम का आशीर्वाद है।
उसके बाद से, अंजलि का भगवान कृष्ण के प्रति प्रेम और भी गहरा हो गया। वह हर दिन उनके भजन गाती और उनकी सेवा करती। उसे अब कभी भी यह डर नहीं लगता था कि भगवान उससे रूठ जाएंगे।
अंजलि ने अपने बेटे आयुष को भी भगवान कृष्ण की भक्ति के बारे में सिखाया। आयुष भी धीरे-धीरे कृष्ण का भक्त बन गया और अक्सर अपनी माँ के साथ भजन गाता था।
अंजलि का परिवार अब पहले से भी ज्यादा खुशहाल और संतुष्ट था। उन्हें यह समझ में आ गया था कि भगवान के प्रति सच्चा प्रेम और समर्पण ही जीवन का सार है।
एक दिन, उज्जैन में एक बड़ा कृष्ण जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जा रहा था। अंजलि और विकास भी आयुष के साथ उस उत्सव में शामिल हुए। वहाँ उन्होंने संजय मित्तल को भी भजन गाते हुए सुना। जब उन्होंने “कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे” भजन गाया, तो अंजलि की आँखों में फिर से आँसू आ गए। यह भजन उसके हृदय की सच्ची पुकार थी।
उस दिन अंजलि ने यह संकल्प लिया कि वह हमेशा भगवान कृष्ण की भक्त रहेगी और कभी भी उनसे दूर नहीं होगी। उसे यह विश्वास हो गया था कि भगवान हमेशा अपने भक्तों के साथ रहते हैं और उनकी हर विनती सुनते हैं।
अंजलि की कहानी उज्जैन के लोगों को सिखाती है कि भगवान के प्रति अटूट प्रेम और समर्पण ही जीवन में सच्ची शांति और खुशी ला सकता है।
“कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे” – यह केवल एक भजन की पंक्ति नहीं, बल्कि एक गहरी भावना का सागर है जो हर उस भक्त के हृदय में हिलोरें मारता है जो अपने आराध्य, भगवान श्री कृष्ण के साथ एक अटूट और प्रेममय संबंध स्थापित करना चाहता है। यह एक ऐसी मार्मिक प्रार्थना है जो भक्त की गहरी आस्था, प्रेम और अपने प्रियतम से कभी भी अलग न होने की तीव्र इच्छा को व्यक्त करती है।
यह उज्जैन की किसी विशेष भक्त की अनमोल विनती हो सकती है, लेकिन इसकी गूंज देश के कोने-कोने में, हर उस हृदय में सुनाई देती है जो कृष्ण प्रेम में डूबा हुआ है। यह विनती शाश्वत है, और यह हमेशा भगवान कृष्ण के चरणों में एक मधुर गुहार बनकर गूंजती रहेगी।
उज्जैन, एक प्राचीन और पवित्र नगरी, जो भगवान शिव की नगरी के रूप में विख्यात है, अपनी आध्यात्मिक गहराई और भक्तिमय वातावरण के लिए भी जानी जाती है। इस पावन भूमि पर, जहाँ हर कण-कण में धर्म और आस्था रची-बसी है, किसी भक्त का भगवान कृष्ण के प्रति ऐसा गहरा अनुराग स्वाभाविक ही है। यह भजन, “कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे,” उस भक्त के अंतरतम की अभिव्यक्ति है, जो अपने ‘श्याम’, अपने प्रिय कृष्ण से किसी भी प्रकार की दूरी या विच्छेद को सहन नहीं कर सकता।
इस भजन की गहराई को समझने के लिए, हमें उस प्रेम और समर्पण की भावना को महसूस करना होगा जो एक भक्त अपने भगवान के प्रति रखता है। भगवान कृष्ण, जिन्हें श्याम सुंदर के नाम से भी जाना जाता है, प्रेम, सौंदर्य और आनंद के प्रतीक हैं। उनके भक्त उनके मनमोहक रूप, उनकी दिव्य लीलाओं और उनकी करुणामयी प्रकृति पर मुग्ध होते हैं। एक भक्त के लिए, भगवान कृष्ण न केवल एक आराध्य हैं, बल्कि एक सखा, एक मार्गदर्शक और उसके जीवन का सार हैं।
“कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे” यह पंक्ति एक बच्चे की उस व्याकुलता को दर्शाती है जो अपनी माँ से रूठने या दूर होने की कल्पना मात्र से ही डर जाता है। यह उस प्रेमी की आतुरता है जो अपने प्रियतम से पल भर भी अलग नहीं रहना चाहता। भक्त और भगवान के बीच का यह संबंध अत्यंत निजी और गहरा होता है, जहाँ भक्त अपनी हर भावना, हर सुख-दुख को अपने आराध्य के साथ साझा करता है।
इस भजन में “रूठना” शब्द का प्रयोग विशेष महत्व रखता है। यह केवल नाराजगी या अप्रसन्नता व्यक्त करने से कहीं अधिक गहरा अर्थ समेटे हुए है। यहाँ, रूठने का अर्थ है भक्त और भगवान के बीच के प्रेममय संवाद का रुक जाना, आध्यात्मिक संबंध में एक प्रकार की दूरी आ जाना। भक्त यह जानता है कि यदि श्याम उससे रूठ जाएंगे, तो उसके जीवन में आनंद, शांति और प्रेम की कमी हो जाएगी। इसलिए, वह अत्यंत विनम्रता और प्रेम से यह प्रार्थना करता है कि ऐसा कभी न हो।
उज्जैन की उस भक्त की यह अनमोल विनती हमें भक्ति के मार्ग की गहराई और सुंदरता का परिचय कराती है। यह हमें सिखाती है कि भगवान के साथ हमारा संबंध केवल पूजा-अर्चना और रीति-रिवाजों तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि यह हृदय से हृदय का एक जीवंत और प्रेमपूर्ण संबंध होना चाहिए। भक्त चाहता है कि उसके और भगवान के बीच हमेशा स्नेह और संवाद बना रहे, ताकि वह हर पल उनकी उपस्थिति और कृपा को महसूस कर सके।
यह भजन हमें यह भी याद दिलाता है कि भगवान भी अपने भक्तों से उतना ही प्रेम करते हैं जितना भक्त उनसे करते हैं। वे हमेशा अपने भक्तों की पुकार सुनते हैं और उनकी रक्षा करते हैं। भक्त की यह विनती वास्तव में एक द्विपक्षीय प्रेम की अभिव्यक्ति है, जहाँ दोनों एक-दूसरे के प्रति अटूट रूप से समर्पित हैं।
“कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे” यह पंक्ति हमें आत्म-मंथन करने के लिए भी प्रेरित करती है। क्या हमारा भी अपने आराध्य के प्रति ऐसा ही गहरा और अटूट प्रेम है? क्या हम भी उनसे कभी दूर होने की कल्पना मात्र से ही व्याकुल हो उठते हैं? यह भजन हमें अपनी भक्ति की गहराई को मापने और उसे और अधिक प्रगाढ़ करने की प्रेरणा देता है।
उज्जैन की उस भक्त की यह विनती समय और स्थान की सीमाओं से परे है। यह हर युग के हर उस भक्त की आवाज है जो भगवान कृष्ण के प्रेम में डूबा हुआ है। यह एक शाश्वत प्रार्थना है जो हमेशा भगवान के चरणों में गूंजती रहेगी, भक्तों को प्रेम, विश्वास और समर्पण के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती रहेगी।
यह भजन हमें यह भी सिखाता है कि भक्ति में अहंकार और अभिमान का कोई स्थान नहीं होता। भक्त हमेशा अपने भगवान के सामने एक विनम्र और प्रेमपूर्ण याचक के रूप में प्रस्तुत होता है। वह जानता है कि भगवान ही सब कुछ हैं और उसके जीवन का हर पल उनकी कृपा पर ही निर्भर करता है। इसलिए, वह पूरी श्रद्धा और समर्पण के साथ यह प्रार्थना करता है कि उसका संबंध अपने प्रिय श्याम से कभी न टूटे।
अंततः, “कभी रुठना ना मुझसे तू श्याम सांवरे” यह केवल एक भजन नहीं, बल्कि प्रेम, भक्ति और अटूट विश्वास का एक दिव्य सार है। यह उज्जैन की उस भक्त की अनमोल भेंट है जो भगवान कृष्ण के चरणों में हमेशा गूंजती रहेगी और अनगिनत भक्तों को उनके आराध्य के साथ एक गहरा और स्थायी संबंध स्थापित करने के लिए प्रेरित करती रहेगी। यह एक ऐसी प्रार्थना है जो हृदय की गहराई से निकलती है और सीधे भगवान के हृदय तक पहुँचती है, एक ऐसा बंधन बनाती है जो कभी टूट नहीं सकता।